Tuesday, October 02, 2007

गजल-बीती-एक अदब की शाम- एक शार्ट फिल्म की कोशिश-एक रपट मुनव्वर राना पर


किसी को घर मिला हिस्से मे, या कोई दुकां आयी,
मैं घर मे सबसे छोटा था, मेरे हिस्से मे मां आयी।

23 सितंबर 2007, बडी अदब और तहजीब से सराबोर शाम थी.. कृभको सभागार नोयडा मे कैसे गुजरी पता ही नही चला. कई दिनों से हम सब तैयारी मे लगे थे..समय कम था. पर सब ठीक हुआ.. और आनेस्ट इंटरटेनमेंट ने अपने पहले प्रोग्राम की सफलता का झंडा लहरा ही दिया.
सभी ने अपनी-अपनी जिम्मेवारी बडी बखूबी निभाई. जो मेरे हिस्से था वह यहाँ आप सभी से बाँट रहा हूँ.

गजल-बीती एक मुशायरा ना होकर भी अधिकांश मुशायरों और एक गजल संध्या से ज्यादा बेहतर था. कार्यक्रम मुनव्वर राना साहब की अदब पर था... गजल को कोठो- कोठियों, महलो और हरम के बीच से निकाल कर आम आदमियों के बीच पहुचाने का श्रेय जिन शायरों को जाता है..राना साहब उनमे से एक हैं.

“खुद से चलकर नहीं ये तर्जे सुखन आया है, पांव दाबे हैं बुजुर्गों के तो ये फन आया है..”




उन्होने अपनी बेहतरीन रचनायें सुनाकर श्रोताओं को सराबोर कर दिया..कुछ शेर मैं यहाँ दे रहा हूँ..
“सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छुपाती है,
जैसे दुल्हन कि सिसकियों को शहनाई छुपाती है।
चाहती है कुछ दिन और माँ को खुश रखना,
ये बच्ची कपङों से अपनी लम्बाई छुपाती है।

उनकी यह रचना भी सराही गई-

ये सर बुलंद होते ही शाने से कट गया,
मैं मोहतरम
हुआ तो जमाने से कट गया।
इस पेङ से किसी को शिकायत नहीं थी,

यह पेङ तो बीच में आने से कट गया।


उन्हे सुनना गुलशन की सैर करने जैसा था..जिसमे अलग-अलग बू के कई रंग खिले हैं.
उन्होंने सिंधु नदी पर अपनी प्रसिद्ध कविता भी पढी...

“यह नदी गुजरे जहाँ से समझो हिन्दुस्तान है”

और माँ कि महानता को इन शब्दों मे व्यक्त किया।

“बुलंदियों का बङे से बङा निशान हुआ,
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान हुआ”

जिन्दगी भर हमने यूँ खाली मकां रहने दिया,
तुम गये तो दूसरे को कब यहाँ रहने दिया।

बनावटी और खोखले व्यवहार पर उन्होने लिखा है...

“मैं फल देखकर लोगों को पहचानता हूँ,
जो बाहर से ज्यादा मीठे हों, अंदर से सङे होते हैं।“


अभिनेता राजबब्बर ने भी राना साहब की कुछ गजलें अपने खास अभिनय अन्दाज मे पढी..




”मियां मैं शेर हूँ शेरों कि गुर्राहट नहीं जाती,
लहजा नर्म भी कर लूं तो झुंझलाहट नहीं जाती”।

कवि प्रदीप चौबे की कविअताओं से हंसी के ठहाके लगते रहे..





हसन काज़मी साहब ने बेहतरीन शेर पेश कर अपनी उपस्थिती दर्ज कराई, अपने इस शेर से उन्होने लोगों तक अपनी बात पहुंचाई....


”क्या जमाना है कभी यूं भी सजा देता है,
मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है.

“गांव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी,
हमको मिट्टी के दिये की रोशनी अच्छी लगी”

अलीगढ से आयीं युवा शायरा मुमताज नजीम की गजलों ने श्रोताओं को मदहोश कर दिया, उन्होने कहा..
“तेरा हुक्म हो तो तमाम शब मैं तेरे सिरहाने खडी रहूं,
अगर तू कहे तो जिन्दगी तेरे पायताने गुजार दूं ।


“जब से इकरार कर लिया हमनें,

खुद को बीमार कर लिया हमनें,

अब तो लगता है जान जायेगी,

तुमसे जो प्यार कर लि
या हमने ।

मदन मोहन दानिस की रचनाओ ने भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया..

कार्यक्रम के संचालन की बागडोर डा. कुमार विश्वास जी के हाथों मे थी...उनका सफल संचालन और काव्य पाठ सुनने देखने का मौका पहली बार मुझे मिला..बडा अदभुत अनुभव रहा.




प्रोग्राम के डिजाइन से सम्बन्धित कार्य मेरे जिम्मे था.. आमंत्रण पत्र, बैकड्राप, मिमेंटो और एक शार्ट फिल्म.. जिसके लिये अपनी एक कलाकृति चुनी..और काफी हद तक सफल रहा. कभी सोचा भी नहीं था कि राना साहेब के इस प्रोग्राम पर मेरा एक अहम किरदार होगा.. बडे सम्मान की बात है मेरे लिये.. कि मैने उन पर काम किया. रिसोर्स कम थे.. और समय भी... 3 दिन की मेहनत और आखिरी 8 घंटे का काम करना काफी सफल रहा.. प्रोग्राम शुरू होने से मात्र 30 मिनट पहले डा. कुमार को यह फिल्म सौपी गयी..



9 मिनट और 38 सेकंड की यह फिल्म डी.वी.डी. क्वालिटी की है. जिसे प्रोजेक्टर पर देखा जा सकता है. इसे यहाँ दे रहा हूँ..उम्मीद है आप सभी को यह प्रयास पसन्द आयेगा.



-विज
www.vijendrasvij.com

Thursday, September 20, 2007

गजल बीती-एक शाम मुनव्वर राणा के नाम


शाम मुनव्वर राणा साहेब के नाम..
23 सितम्बर 2007, क़ृभको आडिटोरियम,
-10, नोयडा, समय शाम 6 बजे.
आप सभी सादर आमंन्त्रित हैं.


Tuesday, August 21, 2007

इक पगली लडकी के बिन, कविता संग्रह, डा. कुमार विश्वास

तनी रंग बिरंगी दुनिया,
दो आंखो मे कैसे आये..
हमसे पूछो, इतने अनुभव
एक कंठ से, कैसे गाये.....
...तब इक पगली लडकी के बिन
जीना गद्दारी लगता है...

डा. कुमार विश्वास, नई पीढी के पसन्दीदा कवि और गीतकार हैँ..इनका नाम किसी परिचय का मोहताज नही है...अभी हाल ही मे ही उनका एक कविता संग्रह “कोई दीवाना कहता है” हिन्द प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ था..और अब पुन: उनका दूसरा एक संग्रह “इक पगली लडकी के बिन” रवि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है...दोनो किताबो के कवर पृष्ठ मेरे द्वारा डिजाइन किये गये है.. जिन्हे यहाँ आप देख सकते है.. कविता संग्रह बाजार मे आसानी से उपलब्ध है...

Tuesday, August 14, 2007

जश्न-ए-आजादी

जश्न-ए-आजादी..
मुबारक हो..

Monday, August 13, 2007

नागार्जुन-साहित्य पर एक चित्र

बादल को घिरते देखा है।


अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहीन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

- नागार्जुन

ग्राफिक्स-विज

Tuesday, August 07, 2007

मैने जीवित व्यक्तियो के पोट्रेट्स नही बनाये...

ज से लगभग 13-14 बरस बहले (सन-1993) मै इलाहाबाद संग्रहालय पहली बार गया था....पहली बार इतनी कलाकृतियाँ देखने को मिली...उन्ही मे से एक नेहरू का पोट्रेट भी था .. आयल कलर , आन बोर्ड , काफी बडा और जाने कौन सी टेक्नीक से बना...उस समय मुझे आयल कलर और टेक्नीक का इतना ज्ञान नही था...

पोट्रेट बनाने की प्रेरणा मुझे उसी चित्र से मिली....नेहरू जी के उस पोट्रेट ने मुझे 20-सो बार संग्रहालय आने पर मजबूर कर दिया... तब तक वीथिका संरक्षको द्वारा उस टेक्नीक के बारे मे भी परिचित हो चुका था..चित्र आयल कलर मे था और बिना कूची का इस्तेमाल किये हुए , नाइफ (एक चाकू जो स्पेशली पेन्टिग के लिये होता है) से बना था. ..बडा ही आश्चर्य और मन मे कौतुहल बना रहता.. क्या सालिड इफेक्ट्स था वाकई...करीब 2-3 बरस के मानसिक तनाव के बाद 1996 मे हमने एक दिन...स्केच बुक से एक पेज निकाला गाँधी के कई चित्र ड्रा किये...एक फाइनल हुआ... आयल कलर के बारे मे ज्यादा ज्ञान नही था....हाँ स्टूडेंट क्वालिटी का कैमेल वाटर कलर रखे थे ..उसी से एक्स्पेरीमेंट करना शुरू किया...वह भी सब्जी काट्ने वाले चाकू से...परिणाम चौकाने वाले थे..सस्ते वाटर कलर से एसा इफेक्ट देख तो आनन्द ही आ गया.

और इस तरह तैयार हुआ यह गाँधी का पोट्रेट....फिर 3-4 दिन बाद नेहरू का....और करीब एक साल बाद (1997) मे मेरा वह आखिरी पोट्रेट मेरी अपनी 5 बरस की बहन ‘रोशनी’ का था......


गाँधी-12 x 17, इंच, वाटर कलर, नाइफ, पेपर-1996

नेहरू -12 x17, इंच, वाटर कलर, नाइफ, पेपर-1996

रोशनी -12 x17, इंच, वाटर कलर, नाइफ, पेपर-1997

बस यही 3 सबूत है मेरे पास की मैने भी कभी पोट्रेट बनाये थे...और आज 10 बरस हो गये....


-विज

Monday, July 09, 2007

सृजन शिल्पी के सवाल मेरे जवाब...

आज सृजनशिल्पी जी की पोस्ट “कला, कलाकार और कल्पना" href="http://srijanshilpi.com/?p=131">कला, कलाकार और कल्पना” पढी...
बडा ही सकरात्मक लेख है...
अभी पिछले हफ्ते उनसे गूगल पर बातचीत हुई...जिसके कुछ अंश उन्ही से इजाजत लेकर यहाँ दे रहा हूँ...कला, कलाकार और उसकी कल्पना के बारे मे उन्होने मुझसे कुछ दिलचस्प सवाल किये...जिनके उत्तर मै यहाँ लिख रहा हूँ....कितनी सफलता मुझे मिली है...वह तो आप ही बता सकेगे...


srijanshilpi: अपने अगले लेख के संदर्भ में, आपकी एक टिप्पणी चाहता हूं

srijanshilpi: कलाकार, अपनी कला में यथार्थ और कल्पना के बीच समन्वय किस प्रक्रिया के तहत करता है
12:08 PM आप इस प्रश्न को अपने हिसाब से समझ सकते हैं

12:09 PM srijanshilpi: और अपने अनुभव से कुछ बताइए

srijanshilpi: किताबी संदर्भ तो मेरे पास पर्याप्त है

12:11 PM srijanshilpi: जैसे किसी बच्चे या फूल को हम रोज देखते हैं और उसे सामने देखकर वैसी कोई प्रतिक्रिया हमपर नहीं होती जो उसी बच्चे या फूल या दृश्य की पेंटिंग को देखकर होती है तो कलाकार यथार्थ में ऐसा क्या और कैसे जोड़ता है जो उसे एक कला में रूपांतरित कर देता है
srijanshilpi: इस सप्ताहांत तक मेरे प्रश्न के संदर्भ में यदि आप कुछ प्रकाश डाल सकें तो उसे अपने लेख में समाहित करने का प्रयास करूंगा

बडे ही दिलचस्प सवाल है आपके, इससे आपकी कला मे गहरी दिल्चस्पी का भी पता लगता है....
आपके प्रश्नो के उत्तर देने की मेरी एक कोशिश भर है....

“कलाकार, अपनी कला में यथार्थ और कल्पना के बीच समन्वय किस प्रक्रिया के तहत करता है”

मेरी नजर मे कोई विषेश व्यक्ति ही कलाकार नही होता...( यहाँ जब बात चल रही है चित्रकला से सम्बन्धित है तो मै चित्रकार के बारे मे कर रहा हूँ..)

”कलाकार तो सभी होते है...सजीवो मे सृजन करने और व्यक्त करने की क्षमता होती है....फर्क सिर्फ इतना है कि किसी का गोला गोल, तो किसी का गोला चौकोर होता है....यदि रियाज किया जाये तो चौकोर गोला भी गोल हो सकता है...”

यथार्थ, को सामने रखकर ही कुछ कल्पनाये की जाती है...जैसे कभी भी कोई चीज सम्पूर्ण नही होती और हम उसकी सम्पूर्णता के लिये कल्पनाये करते है...हाँ यह जरूरी नही कि हमारी कल्पनाओ को सही दिशा मिल जाये..

एक चित्रकार की भी यही कोशिश होती है कि वह कल्पनाओ को उनका ही एक आकार दे सके, अपनी दृष्टि दे सके..... एक आइना दे सके...फिर हम उन रोज मर्रा की चीजो को उसकी नजर से देखते है तो वह खास बन जाती है..खूबसूरत लगने लगती है..और हम अनायास ही उन्हे देख कर कुछ कह उठते है....या यह कहेँ प्रतिक्रियाये जन्म लेती है...

srijanshilpi: जैसे किसी बच्चे या फूल को हम रोज देखते हैं और उसे सामने देखकर वैसी कोई प्रतिक्रिया हमपर नहीं होती जो उसी बच्चे या फूल या दृश्य की पेंटिंग को देखकर होती है तो कलाकार यथार्थ में ऐसा क्या और कैसे जोड़ता है जो उसे एक कला में रूपांतरित कर देता है....

मेरे खयाल से आपके इस प्रश्न के भी मै करीब आ गया हूँगा...

”ठीक वैसे ..जैसे हम किसी चीज कैलेंडर को देखते है..या कोई फोटो...या जैसा आपने कहा..किसी बच्चे , फूल को देखते है... जो हू...बहू दिखे...हम पर वाकई कोई विषेश प्रतिक्रिया नही होती...बनिस्पत अगर हमे उसकी पेंटिंग को देख होती है...तो यहाँ भी वही बात है.. हम यथार्थ को कल्पनाओ के साथ देखते है...और अपनी दृष्टि देते है.. हममे उस पेंटिंग को देख स्रज़नात्मक् क्षमता, कल्पनाये और दृष्टिकोण एकसाथ मिल जाते है..तभी शायद प्रतिक्रियाये जन्म लेती होंगी....

चित्रकार यथार्थ के उन पहलुओ को उजागर करता है जिन्हे हम देख नही पाते या देखने की कोशिश नही करते..या देख कर भी अनदेखा कर देते है....और फिर् हम उन्ही चीजो को चित्रकार की नजर से देखते है...या किसी कलाकृति के माध्यम से देखते है.. तो उन मामूली सी दिखने वाली चीजो मे भी खूबसूरती नजर आती है....क्यूँकि तब हम उनके सभी पहलुओ को एकसाथ देख पाते है..

“क़ूडे के ढेर से सिर्फ बदबू ही आती है... यह यथार्थ है...
क़ूडे के ढेर से सिर्फ बदबू ही नही आती है.. और भी कुछ होता है... यदि उन्हे आकार दे तो ...वह खूबसूरत लगेगी...... यह एक कोरी कल्पना है....

“आपने चित्रकार की नजर से कचरे का ढेर देखा.... उस कचरे मे बडी सारी चीजे थी...जैसे सडे कागज, खाना, बरसाती ...पुरानी घिसी पिटी चप्पल.......
अहा, क्या रंग है चप्पल का.... शायद हवाई चप्पल है... गुलाबी रंग की होती तो और खूबसूरत लगती....अभी पूरी टूटी नही......जुडी होती या फिर पूरी टूटी होती तो और भी खूबसूरत दिखती....अरे, कूडे के ढेर को यहाँ से देखो .....नीला आसमान साफ नजर आ रहा है उसके बैकग्राउंड् मे....और डूबते हुए सूरज की हल्की रोशनी टूटे चप्पल पर भी पड रही है...सुनहला लगने लगा है.... कचरे का ढेर तो एक विशाल पहाड जैसा.. ..क्या चित्र बन रहा है... चलो फिर मन मे इसे एक आकार देते है....क्या गजब का चित्र बना है...”
शायद, ऐसे ही रची जाती होंगी कलाकृतियाँ....

"लियनार्दो की मोनालिसा भी ऐसे ही रची गई होगी...
क्या थी, एक जीती जागती हमारी ही जैसी आँख नाक पैर वाली आम इंसान ही...तो हम क्युँ न् देख सके उसकी खूबसूरती को.. लियनार्दो ने ही क्यो देखा...उसी ने हमे उसकी खनकती/ मुस्कुराती हँसी दिखाई...उसकी मुस्कुराहट् का राज, उसकी आंखो की गहराई...और वह तमाम अनदेखे पहलू भी दिखाये थे...मोनालिसा कोई भी हो सकती है... अभी भी यहाँ हो सकती है...फर्क यही है कि हम उसे देख नही पा रहे... बरसो पहले ही दिखी थी लियनार्दो को... हमे फिर से दिख सकेगी..यदि हम यथार्थ के साथ अपनी कल्पनाओ के रंग भर देंगे."



यह मेरे अपने व्यक्तिगत विचार है..मेरी अपनी सोच... दावा नही....सभी की अपनी-अपनी विचारधाराये हो सकती है.....उम्मीद है, आपके पूछे गये प्रश्नो के उत्तर मिल गये होंगे....
और, सच बात तो यह है कि इन सभी सवालो के जवाब... एक चित्रकार नही...उसकी कला के कद्रदान बखूबी दे सकते है......जिसने महसूस किया होगा...असल उत्तर वही होंगे.....

-विज

Friday, July 06, 2007

अक्सर, मौसमो की छत तले

किसी मौसम में
एक इतिहास
मैं भी रचना चाहता था...

कभी बारिश की
बून्दों की टपटप के बीच
तो कभी,
हरी, पीली, बसंती
सरसों के साथ....
और,
कभी लपकाती हुई तारकोली
दिल्ली की सड़कों में
आवारा बन....

हाँ,
एक मौसम चला था
मेरे साथ भी,
कुछ पल....
सर्द कोहरे की धुन्ध मे
लिपटा हुआ....

अलसाई हुई,
सुबहो के साथ
एक दिन,
करवट बदली थी इतिहास ने.....

अपनी कँपकपाती हुई
उंगलियों के बीच फँसी
उस अधजली सिगरेट के
दो कश लिए थे...बस
तभी,
दूर कहीं कोहरे में गुम
उसकी...
सफेद आकृति ने
करीब आकर साँस ली...
और,
कर गयी स्तब्ध....

ठगा सा देखता रहा
उसे, यूँ ही....
उंगलियों की जलन ने
आभास कराया मुझे,
मेरे अपने
वहाँ होने का....

कितने मौसमो की उम्र
साथ लिये...
जिये थे वह
हसीन से लम्हे
मैने...

अब तो,
पीले पत्तों का मौसम
जा चुका है.....
बावजूद इसके....
कभी बन ना सका मै,
उसके प्रेम का
कोई भी एक हिस्सा...

और,
दूर खड़े देखता रहा
बस यूँ उसे,
किसी और का इतिहास बनते....

अक्सर,
मौसमो की छत तले
आज भी वह,
बेहद याद आती है......

-विज
( नवम्बर 2004. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)

Friday, June 29, 2007

लाल बत्तियोँ मे साँस लेता एक वक्त

अक्सर देखता हूँ
वक्त को..
अपने नन्हे हाँथ फैलाये
दिल्ली की लाल बत्त्तियो पर...

यह..कभी कभी
साल मे दो-चार बार
तिरंगे झंडे को बेचकर भी
दो-वक्त की रोटी का जुगाड करता
दिख जाता है...

और कभी..
फटे चीथडो मे लिपटा...
फुटपाथ से चिपटा
दिख ही जाता है...

एक दिन तो मेरे करीब आकर बोला..
बाबूजी,
बस एक रुपया दे दो..
दो-दिन से कुछ खाया नही..

कभी...किसी दिन
यह शनि बन जाता है..
और थाम लेता है
सरसो के तेल से भरा एक कटोरा
अपने नन्हे हाथो मे...
और,
निकल पडता है
हमे शनि के शाप से
मुक्त करने....

यह हमेशा चलता रहता है..
कभी थकता भी नही..
इसके सोने और जागने का भी
कोई हिसाब नही रखता...

शायद...
यह हमेशा ऐसे ही चलेगा..
यह अक्सर दिखेगा..
कही...किसी भी लाल बत्ती पर..

और,
हम तमाशबीन बने दूर खडे..
इस वक्त को भी..
सिर्फ,
आते जाते ही देखते रहेंगे..

लोग कहते तो है
वक्त के साथ शायद....
सब कुछ बदल जाता है..
पर यह वक्त तो कभी नही बदला.....

-विज
( सितम्बर 2005. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)

Saturday, June 09, 2007

मै बंजारा, वक्त के कितने शहरो से गुजरा हूँ

मै बंजारा,
वक्त के कितने शहरो से गुजरा हूँ
लेकिन,
वक्त के इक शहर से जाते जाते
मुडके देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
तुमसे मेरा ये नाता भी टूट रहा है
तुमने मुझको छोडा था जिस शहर मे आके
वक्त का अब वो शहर भी मुझसे छू रहा है..


जावेद अख्तर साहेब की यह नज्म मुझे बेहद अच्छी लगती है..बडा सुकूँन देती है आज भी..जब हम अपने उन शहरो को याद करते है..जिन्हे पीछे छोड आये..मेरे खयाल से मै ही नही.. मेरे जैसे कितने ही लोग होंगे जिन्होने शहर दर शहर बद्ले होगे..और हर शहर ने उन्हे कुछ न कुछ जरूर दिया होगा..उन्हे यह नज्म अपने ही दिल की एक जबान जरूर लगती होगी.. साढे छ: बरस पहले मै जब इलाहाबाद छोड दिल्ली आया था..तब उस्ताद शायरो, कवियो की शायरी और कविताओ के साथ जुगलबन्दी किया करता था..यह चित्र भी मेरी जुगलबन्दी का एक हिस्सा है..
महज छ: बरस पुराना...

-विज
http://www.vijendrasvij.com

Friday, June 01, 2007

त्रिनिदाद में हिन्दी का स्वाद--अशोक चक्रधर

कितना आनंदकारी होता है सुदूर देशों में वहां के निवासियों और प्रवासियों से हिन्दी सुनना। अपने देश में ही हिन्दी के विभिन्न रूपों की कमी नहीं है, जब बाहर जाते हैं तो हिन्दी की ध्वनियां और भी लुभावनी हो जाती हैं। पहली बार जब मॉरिशस गया था तब जो हिन्दी सुनी, बहुत निराली थी। जीवन की मिक्सी-ग्राइंडर में भोजपुरी, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, और क्रियोल को डालकर घुमाने के बाद ऐसी भाषा निकली जो जहां-तहां ही समझ में आती थी, पर लगती थी मीठी और अनूठी।


पां बरस पहले त्रिनिदाद जाने का मौका मिला। मिला भी कैसे? बताता हूं। भूमिका में आत्मश्लाघा लगे तो क्षमा करिएगा। हुआ यूं कि अचानक हिन्दी जगत में कुछ ऐसी हवा फैली कि अशोक चक्रधर नाम का जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया का हिन्दी का प्रोफेसर इन दिनों काफी कम्प्यूटर-कम्प्यूटर खेल रहा है। लैपटॉप, प्रोजैक्टर और पर्दा लेकर कुछ ऐसी चीज़ें दिखाता फिर रहा है जिससे पता चलता है कि कम्प्यूटर में हिन्दी किस रफ्तार से प्रवेश पा रही है।

मैं कम्प्यूटर की आंतरिक तकनीक के बारे में अधिक नहीं जानता था, लेकिन ये सच है कि हिन्दी से जुड़े सॉफ्टवेयर्स का अच्छा प्रयोक्ता बन चुका था। माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी ने सन 2000 में जब ऑफिस 2000 बाज़ार में उतारा तब पॉवर-पाइंट का प्रयोग करते हुए मैंने उनके लिए जो प्रस्तुतियां बनाईं और जगह-जगह दिखाईं उससे हिन्दी के उन हल्कों में, जहां सूचना प्रौद्योगिकी की प्यास थी, मेरी अच्छी-खासी पूछ होने लगी। कोई चीज़ थी ‘यूनिकोड’, जिसका बड़ा हल्ला था। माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेयर इंजीनियर समझाते थे कि भाषाई कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा। अब तो यूनिकोड की महत्ता सब जानते हैं लेकिन मैं सन 2000 में ही उसका नया-नया मुल्ला बन गया था। अपने सद्य:ज्ञान से हिन्दी प्रेमियों को यूनिकोड की महत्ता समझाता था। पर हाय! उन दिनों कंप्यूटर में यूनिकोड तब तक सक्रिय नहीं होता था जब तक कि ऑपरेटिंग सिस्टम भी विंडोज़ 2000 न हो। और हिन्दी के अधिकांश लोग बमुश्किल तमाम विंडोज़ 98 पर ही अटके हुए थे। विंडोज़ एक्सपी के बाद तो कोई कठिनाई ही न रही। जब त्रिनिदाद से बुलावा आया तब मैं विंडोज़ एक्सपी का भरपूर उपयोग कर रहा था। माइक्रोसॉफ्ट के लोग मुझे अपने हिन्दी उत्पादों का पहला प्रयोक्ता घोषित करते थे। त्रिनिदाद से बुलावा कब और कहां आया, ये भी सुनिए।

मैं माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित भाषाई कम्प्यूटिंग पर आधारित एक सेमिनार में भाग लेने के लिए भोपाल गया हुआ था। वे दिन बड़े मज़ेदार थे। कम्प्यूटर ज्ञाताओं को हिन्दी अधिक नहीं आती थी और हिन्दी-वादियों का कम्प्यूटर से भला क्या लेना-देना। हम चार-पांच गिने-चुने ही लोग थे, जैसे प्रो. सूरजभान सिंह, डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, डॉ. वी. रा. जगन्नाथन, हेमंत दरबारी, जो हर सभा-संगोष्ठी में दिख जाते थे। डॉ. वी. रा. जगन्नाथन के साथ मिलकर मैं जिस समय एक पॉवरपाइंट प्रस्तुति पर काम कर रहा था, मेरे मोबाइल पर त्रिनिदाद से डॉ. प्रेम जनमेजय का फोन आया— ‘दोस्त! त्रिनिदाद आना है। हम यहां सत्रह से उन्नीस बीस मई के बीच अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। सम्मेलन में एक पूरा सत्र हमने सूचना प्रौद्योगिकी पर रखा है। इन दिनों तुम्हारे खूब हल्ले सुनने में आ रहे हैं। आ जाओ डियर! एक धांसू कविसम्मेलन भी रखेंगे। भारतीय उच्चायोग के साथ हमारी यूनिवर्सिटी, जहां मैं पढ़ा रहा हूं, मिलकर ये आयोजन कर रहे हैं। हिन्दी विद्वानों और साहित्यकारों के नाम तय हो चुके हैं, तुम्हारा सारा खर्चा हम उठाएंगे। मैंने यहां तुम्हारी काफी हवा बना दी है कि बंदा बड़ी मुश्किल से मिलता है, बहुत बिज़ी रहता है, कविसम्मेलनों के ज़रिए बहुत कमाता है, ऐसे फोकट में नहीं आएगा। तो मैंने तुम्हारे लिए एक हज़ार डॉलर की अलग से व्यवस्था भी कराई है... लेकिन डियर, किसी को बताना मत’।

मैं मोबाइल ले कर कमरे से बाहर आ गया, कहीं वी. रा. जगन्नाथन ही न सुन लें, शायद जा रहे हों। अन्दर-अन्दर मैं बेहद खुश। एक फोन पर सब कुछ तय हो गया। बाहर से अन्दर आया, यह दिव्य समाचार पचा नहीं पाया। जगन्नाथन जी को बताया तो ज्ञात हुआ कि वे त्रिनिदाद जा चुके हैं। वहां हिन्दी पढ़ा चुके हैं। मैं और खुश, ये हुई सोने पर सुहागे वाली बात। त्रिनिदाद में अपना नक्शा जमा सकूं इसके लिए संयोग देखिए कि वहां का नक्शा मनुष्य शरीर में मेरे सामने ही बैठा है। मैंने प्रोफेसर से कहा— ‘प्रस्तुति तो अपनी लगभग तैयार है जगन्नाथन जी! आप ज़रा त्रिनिदाद के बारे में बताइए’। उन्होंने बताया-- ‘त्रिनिदाद के लोग हिन्दी फिल्मी गीतों के बड़े दीवाने हैं और एक म्यूज़िक चलता है वहां, चटनी’। उदारमना प्रोफेसर ने दिल्ली आने पर मुझे चटनी संगीत के छ: ऑडियो कैसेट दिए। अपनी कार में भरपूर सुने मैंने। क्रीस रामखेलावन की स्किनर पार्क की त्रिनिदाद स्टाइल चटनी, सॉसी रामरजी की चटनी, चटक-मटक चटनी, गुलारी के फूल, जानीया जानीया चटनी और बाबला कंचन की मानूं ना मानूं ना चटनी। साद्रो की अफ्रीकन रिद्म और नरेश प्रभू की ढोलक।
कुछ नमूने बताता हूं—

‘मैं तो जाऊंगी अकेला, मैं तो लागी तेरी हो, मैया, जाऊंगी अकेला’।

‘होलीया सताए रे, आए ना बलमवा। पहली बुलाव ससुर मोरे ऐले, लागेला सरमवा नजरिया घुमैले। आए ना बलमवा’।

‘ना रही सै छांव मंगलवा, झारू सै झारै अंगनवा। उसपे बैठे न बा, कैसे के मारो नजरिया। झारू सै झारै अंगनवा।

त्रिनिदाद में हवाई अड्डे से जिस कार में हम होटल की ओर जा रहे थे उसमें बज रहा था वही कैसेट। भोजपुरी चटनी संगीत-- ‘मैं तो जाऊंगी अकेला...’। मॉरिशस की हिन्दी से अलग प्रकार की हिन्दी। भोजपुरी और अफ्रीकन भाषाओं का मिलाजुला रूप। बेहद कर्णप्रिय, बेहद लुभावना।

जहां ठहराया गया वह कोई होटल नहीं था। कोई व्यक्तिगत गैस्ट हाउस था। नाम था उसका— मॉर्टन। भरपूर हरियाली से घिरी एक सहज सी दुमंज़िला इमारत, जिसके ऊपर टीन की छत थी। छत को चारों ओर से घेरे हुए थे ऊंचे-ऊंचे वृक्ष। सामने एक छोटा सा चर्च। मॉर्टन का बड़ा सा अहाता। अन्दर जाने के लिए लोहे का स्लाइडिंग डोर और लोहे की ही सीढ़ियां।

गाड़ियों से प्रतिभागियों का सामान उतर रहा था। मेरे साथ डॉयमण्ड पब्लिकेशन के स्वामी नरेन्द्र कुमार थे। मैंने उनसे कहा— ‘सामान की फिक्र छोड़िए, कमरा देखते हैं अपने लिए बढ़िया सा। ऊपर ठहरेंगे हरियाली का मज़ा लेंगे’। मैं लोहे की सीढ़ियों पर खटा-खट ऊपर चढ़ गया। नरेन्द्र जी आराम से आए। सामने बाल्कनी में आरामकुर्सी पर बैठी थीं हंगरी से आई हुई डॉ. मारिया नेज्येशी। मैं उनसे परिचित था। उनके सामने रखी मेज़ पर चाय की केतली थी और बिस्कुट की प्लेट। मिलकर खुश हुईं। प्यार से हम दोनों को बिठाया। स्वयं किचिन से कप लेकर आईं। ऐसा स्नेहिल व्यवहार था कि हम भला चाय के लिए कैसे मना करते। मैंने पूछा— ‘यहां कौन सा कमरा अच्छा है मारिया जी’? वे बोलीं— ‘ऊपर एक-दो कक्ष खाली हैं, लेकिन बताया गया है कि ऊपर सिर्फ महिलाएं रुकेंगी। मॉरिशस से डॉ. रेशमी रामधुनी आने वाली हैं और भारत से भी तो आपके साथ कुछ महिलाएं आई होंगी’।

इतना सुनने के बाद हमसे चाय न पी गई। धड़धड़ाते हुए नीचे आए। तब तक नीचे के सारे अच्छे कमरे लुट चुके थे। हमारे पल्ले पड़ा एक टुइयां सा नौ बाई नौ का कमरा। नरेन्द्र जी मेरे प्रकाशक थे और मैं उनका लेखक। मित्रता ऐसी की रॉयल्टी का मामला कभी आड़े नहीं आया। लॉयल्टी बनी हुई थी एक-दूसरे के प्रति। विमान में ही तय कर चुके थे कि एक साथ ठहरेंगे। हिस्से में आया ये नौ बाई नौ का दड़बा। मज़े की विडम्बना ये कि अन्य प्रतिभागियों की तुलना में हम दोनों के पास सामान ज़्यादा था। उनके पास किताबों के बड़े-बड़े बंडल और मेरे पास लैपटॉप, प्रोजैक्टर और तकनीकी तामझाम। उन दिनों एल.सी.डी. प्रोजैक्टर इतने आम नहीं हुए थे। मैं अपनी रिस्क पर जामिआ का प्रोजैक्टर लाया था।

कमरे में किताबों के गट्ठरों ने मेज़ का काम दिया और मेरे उपकरणों ने पलंग पर पार्टीशन का। स्थान कम था, हौसले बड़े थे। मैंने एक ही रात में अपना पॉवर-पाइंट प्रैज़ेंटेशन बनाया फिर नरेन्द्र जी के लिए दूसरा। सुबह-सुबह उन्हें प्रशिक्षित भी किया— ‘हिन्दी के प्रकाशक को हाई-टैक दिखना चाहिए नरेन्द्र जी! लीजिए, अब आपको कुछ नहीं करना है। बस, राइट ऐरो वाला बटन दबाते रहना है और बतियाते रहना है’। वे मुझ से अधिक उत्साह में थे।

मेरी अपनी प्रस्तुति पहले से ही लगभग तैयार थी। उसमें मुझे सिर्फ स्थानीय रंग भरना था। मॉर्टन के आसपास के कुछ चित्र अपने डिजिटल कैमरे से लिए। एक नज़ारा मेरे कैमरे को भाया। कंक्रीट और तारकोल की सड़क पर बीच-बीच में घास निकली हुई थी। मेरी प्रस्तुति को प्रस्थान-बिन्दु मिल चुका था। मैंने सोच लिया कि इच्छा-शक्ति का बीज यदि शक्तिशाली है तो नन्हा अंकुर कोमल धरती को ही नहीं सीमेंट और तारकोल को भी फोड़ कर बाहर आ सकता है।

आयोजन तीन दिन चलना था। उद्घाटन सत्र में त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री मौजूद थे। प्रधानमंत्री यद्यपि अंग्रेज़ी में बोले लेकिन अपने भाषण में उन्होंने भौजी, दादी मां, का उल्लेख कई बार किया। ‘निमकहराम’— उन्होंने बताया कि यह शब्द राजनीति में हमारे यहां भी चलता है।

भारतीय दल के नेता थे सांसद श्री जगदम्बी प्रसाद यादव। उद्घाटन सत्र में उनका लिखित भाषण कई पन्नों का था। काफी बुज़ुर्ग थे वे। अटक-अटक कर धीरे-धीरे पूरा का पूरा भाषण पढ़ दिया। वहां के श्रोता और प्रतिभागी उबासियां लेने लगे। जब बताया गया कि अब इस भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत किया जाएगा तो भारत से गए प्रतिभागियों की मूर्छित हो जाने की इच्छा हुई होगी— ‘लीजिए अब फिर से वही सुनिए’। बहरहाल, स्थानीय तरुणियों के कत्थक नृत्य से राहत मिली। सभागार में ऊपर से लटकाए हुए, पेपरमैशी से बने, हिन्दी वर्णमाला के कुछ अक्षरों ने बालिकाओं को आशीष दिया होगा।

भारत सरकार की तरफ से भेजा गया प्रतिनिधि मंडल वहां के पांच-सितारा होटल में ठहरा था। विदेश सचिव श्री जगदीश शर्मा और जगदम्बी जी के साथ कुछ अन्य सरकारी अथवा सरकार-सम्मत लोग थे। सारे के सारे सत्रों में उस प्रतिनिधि मंडल में से उद्घाटन समारोह के बाद इक्का-दुक्का लोग ही दिखे लेकिन त्रिनिदाद में भारत के उच्चायुक्त श्री वीरेन्द्र गुप्ता लगभग हर सत्र में मौजूद रहे।

मेरी गुरुआनी डॉ. निर्मला जैन ने भाषा के सामाजिक पहलुओं पर चर्चा की तो श्री कन्हैया लाल नन्दन ने हिन्दी की विभिन्न विधाओं का परिचय दिया। डॉ. मधुरिमा कोहली का पर्चा दिलचस्प था। उन्होंने बताया कि विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी को सीखने-सिखाने में क्या परेशानियां आती हैं। लंदन से आए पद्मेश ने हिन्दी और अन्य विदेशी भाषाओं के लिए शिक्षण-प्रविधियां बताईं।

हमारा सूचना प्रौद्योगिकी वाला सत्र हुआ तो उसके लिए दरकार थी एक अदद प्रोजैक्टर की। सभागार में पता नहीं कौन सा प्रोजैक्टर लगा था जो अंग्रेज़ी कार्यक्रम दिखाओ तो चलता था, हिन्दी आते ही बन्द हो जाता था। भला हुआ जो मैं अपना, यानी जामिआ का, प्रोजैक्टर ले गया। वही सी-डैक के हेमंत दरबारी के काम आया, उसी पर डॉ. कुमार महावीर ने अपनी प्रस्तुति दिखाई और उसी पर नरेन्द्र जी ने लैप-टॉप का इकलौता बटन दबा कर हिन्दी पुस्तकों के झण्डे गाड़ दिए।

एक सत्र हुआ जिसका शीर्षक था ‘हिन्दी ऐवरी व्हेयर’, इसमें डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण ने जापान, मारिया ने हंगरी, अनिल शर्मा और तेजेन्द्र शर्मा ने लंदन (यू.के.), रेशमी रामधुनी ने मॉरिशस और अनुराधा जोशी ने गयाना में हिन्दी शिक्षण के अपने-अपने अनुभव बताए। एक पूरा सत्र तुलसी और कबीर के नाम था जिसमें डॉ. नरेन्द्र कोहली, गोविंद मिश्र, सूर्यबाला और डॉ. पुष्पिता ने बताया कि किस प्रकार मध्यकालीन कवियों की रचनाओं ने कैरेबियन देशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। चटनी गीतों में नन्दलाल बेहद लोकप्रिय हैं—‘दधीया मोरी लै ले हो लै ले नन्दलाल’। ‘नन्दलाल’ के उच्चारण में अंग्रेज़ी की ध्वन्यात्मकता ज़रूर महसूस की जा सकती है।

डॉ. सिल्विया मूडी कुबला सिंह इस समारोह की मुख्य आयोजिका थीं। पतली-दुबली, छरहरी सौम्य-शांत स्वभाव की विदुषी। कविताएं लिखती थीं, पर अंग्रेज़ी में। प्रेम ने बड़े प्रेम से कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने में उनकी सहायता की। वाणी इतनी मधुर की प्रेम ने उनका उपनाम ‘कोकिला’ रख दिया। श्यामलवर्णी मूडी को अपना नाम ‘कोकिला’ बहुत पसन्द आया। डॉ. दिविक रमेश और गिरीष पंकज की रचनाएं उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के लिए मांगी। वे सब का भरपूर ध्यान रखती थीं।

यादों में बहुत चीज़ें घुमड़ रही हैं। प्रो. हरिशंकर आदेश का आश्रम, उनका पुस्तकालय, जहाजी चालीसा का विमोचन, चंका सीताराम का भव्य महल, समंदर के किनारे उनका शानदार बंगला, लहरों का शोर, मन्दिर की घण्टियां और अज़ान के स्वर, मनोहारी समंदर के तट, स्थान-स्थान पर क्रिकेट खेलते बच्चे, कमल के फूलों से सम्पन्न बॉटेनिकल गार्डन, रंग बदल कर लाल हो जाने वाले पक्षी, बाबा मौर्या का आम के पेड़ पर चढ़ना, नारियल का पानी, प्रतिभागियों की पिकनिक, चंका सीताराम के स्विमिंग पूल के किनारे विदाई समारोह के समय हल्की सी रिमझिम, न थमने वाले नृत्य, नरेन्द्र जी का पुस्तक विक्रेता, जर्जर हिन्दी भवन, दशहरा मैदान की पालकी, दो मंज़िला भवन जितनी ऊंची विवेकानंद की मूर्ति, प्रेम के घर के पिछवाड़े आम के पेड़, उनके दो प्यारे-प्यारे लड़ाकू पिल्ले, सिंह साहब की गार्मेंट्स की फैक्ट्री, ‘पिच लेक’ का काला दलदल. समुद्र के बीच बने मन्दिर पर लगे रंग-बिरंगे झंडे, बड़े-बड़े झुरमुटों में नन्ही-नन्ही चिड़िया, आकाश के बदलते रंग, उच्चायुक्त वीरेन्द्र गुप्ता के वृहत सरकारी निवास पर संगीत की महफ़िल, संदलेश और भारद्वाज जी की रैड वाइन और न जाने क्या-क्या।

बस एक बात और बताकर अपना फ़साना समाप्त करता हूं। अंतिम दिन हुए कवि-सम्मेलन में जहां लगभग सभी प्रतिभागियों ने अपनी कविताएं सुनाईं, संचालन मैंने किया। और अपनी शरारती कविताई से बाज़ नहीं आया। मैंने मंच पर बैठे-बैठे कुछ पंक्तियां गढ़ीं और श्रोताओं के कानों में जड़ दीं। मुझे ठहाकों और तालियों की ध्वनि अबतक सुनाई दे रही है। वे पंक्तियां थीं---
गुप्ता जी के प्रेम ने ऐसा किया कमाल,
सात-समंदर पार भी हिन्दी करे धमाल।
हिन्दी करे धमाल, तीन दिन बीते ऐसे,
जैसे भरे बज़ार, बीत जाते हैं पैसे।
कह चकरू चकराय, धन्य अपने जगदम्बी,
जब वे बोले, प्यारे मित्रो, सोए हम भी।

स्वर्ग में जगदम्बी जी भी मुस्करा रहे होंगे। न मुस्कराएं तो क्षमा करें।

ओहो! ये तो अपन त्रिनिदाद में ही अटक कर रह गए। टोबैगो के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं, जहां प्रकृति में चुम्बक होती है। चलिए फिर कभी सही।


द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...

Thursday, May 31, 2007

वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

यह कविता काफी पहले लिखी थी... कृत्या अक्टूबर-2005 अंक मे प्रकाशित हुई थी..आज कृत्या पलटते नजर आ गयी...यहाँ आप सभी के साथ भी बाँट रहा हूँ...बस ऐसे ही..

एक कविता
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दिल्ली की ठंडी सुबहों में
अक्सर
एक जिन्दगी को
देखा करता था
बुझते हुए,

वह पेड़ के तले
इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
काँपते हाथों से
बीनने की नाकाम
कोशिश करती

कभी पास से गुजरते को
असहाय निहारती,
कभी ना जाने क्या बुदबुदाती

मैं जब भी
उसके पास से गुजरता
सहम जाता,
टटोलने लगता
जेब में पड़े चन्द सिक्के
तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते

तमाम कोशिश के बावजूद
मेरा हाथ नहीं छूट पाता
मेरी जेब की गिरफ्त से,
और मैं तेज कदमों से
आगे बढ़ जाता

उसकी अस्पष्ट
पर रुह को कंपकपाँने वाली
बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
दूर तक पीछा करती मेरा

अब,
उसकी बुदबुदाहट
तब्दील हो गई है चीख में,

हालाँकि मैंने
बदल लिया है रास्ता
फिर भी वह आवाज
अक्सर मेरा पीछा करती है ।

मेरी पहली सामूहिक चित्र प्रदर्शनी व पहला 'वाटर कलर' चित्र

सन-1994 मे बना 'वाटर कलर' का चित्र शीर्षक "मदर एण्ड चाइल्ड" पहला इसलिये है कि यह सबसे पहले किसी चित्र प्रदर्शनी मे प्रदर्शित हुआ.


16 जनवरी 1997 , इलाहाबाद संग्रहालय (Allahabad Museum) मे एक सामूहिक चित्र प्रदर्शनी हुई..जिसमे मेरे कुल 5 चित्र प्रदर्शित हुए..उपरोक्त चित्र उनमे से एक है..बाकी के चार चित्र यहाँ नीचे है...

































4 फरवरी 1997 के "अमृत प्रभात" अखबार की वह कटिंग जिसमे इस चित्र प्रदर्शनी के बारे मे लिखा गया..यह पहली अखबार की कतरन थी जिस पर मेरे चित्रो के बारे मे लिखा गया..यहाँ आप पढ सकते है..यह सभी चित्र 'दारागंज इलाहाबाद' के मेरे एक छोटे से कमरे मे बनी है..और यह कतरन मुझे उस दुकान से मिली जहाँ हम चाय और सुबह का अखबार पढने जाया करते थे. .जिसकी खुशी मेरे दिल मे आज भी तरोताजा है..

Wednesday, May 30, 2007

मेरा पहला तैलीय चित्र

" मदर एण्ड चाइल्ड" ,
वर्ष -२००४, आयल आन बोर्ड

आयल कलर से बनी मेरी पहली पेंटिंग है.. शीर्षक है " मदर एण्ड चाइल्ड" जिसे सन - 1994 मे "इलाहाबाद संग्रहालय" मे चल रही वर्कशाप के दौरान बनाया था..हाँ हस्ताक्षर नये है..सन 1994 मे मुझे आयल कलर की ट्यूब के बारे मे जानकारी हुई..इससे पहले मै एशियन पेंट से ही यदा कदा तस्वीरो मे रंग भरता था ..या फिर स्डूडेन्ट क्वालिटी का कैमेल वाटर कलर...वर्कशाप के दौरान इलाहाबाद से जुडी बडी सारी यादे तरोताजा है.. कोशिश करुँगा इन्हे शब्द दे सकूँ..शायद आपको भी पसन्द आये।

Wednesday, May 23, 2007

सारा डेटा पा जाएगा बेटा-अशोक चक्रधर

अधिक नहीं कुछ चाहिए,
अधिक न मन ललचाय,
साईं इतना दीजिए,
साइबर में न समाय।

भक्त की ये अरदास सुनकर भगवान घबरा गए। क्या! भक्त इतना चाहता है जो साइबर में न समाए! अरे भइया! इतना तो अपने पास भी नहीं है। अपन को मृत्युलोक का डेटा लेना होता है तो साइबर स्पेस में सर्च मारनी पड़ती है। यमराज का सारा काम आजकल इंटरनेट पर चल रहा है। पूरे ब्रह्मांड के इतने ग्रह-नक्षत्र, उनमें इतने सारे जीवधारी! किसकी जन्म की किसकी मृत्यु की बारी? सब नेट से ही तो ज्ञात होता है। डब्ल्यू-डब्ल्यू-डब्ल्यू यानी वर्ल्ड वाइड वेब अब बी-बी-बी हो गया है। बी-बी-बी अर्थात् बियोंड ब्रह्मांड बेस। धरती पर हिन्दी का एक सिरफिरा कवि इसको ‘जगत जोड़ता जाला’ बोलता है। कहता है--
‘साइबर नेट बने हुए, इस जी के जंजाल,
अपने ऊपर बिछा है, जगत जोड़ता जाल॥’
बहरहाल, भगवान बड़बड़ा रहे हैं— ‘बताइए! भक्त ब्रह्मांड से अधिक चाहता है। धरती पर ‘साइबर स्पेस’ कहते हैं, पर हम भगवानों के बीच इसे ‘स्पेस साइबर’ कहा जाता है। पता नहीं किस साइबर की बात कर रहा है भक्त’। भगवान व्यथित हैं।

जिस भक्त ने भगवान को कष्ट दिया वह इस समय एक अस्पताल में लगभग मृत्यु शैया पर है। उसकी आयु एक सौ छ: वर्ष हो चुकी है फिर भी जीने की इच्छा कम नहीं हुई। कहने को ही भक्त है वह। दरअसल, वह स्वयं ही भगवान बनने की फिराक में है। उसका नाम है-- श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. 987654321 कैटेगरी- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा।

स्वामी इंवैंटीलेटर पर हैं। उनकी इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों से विद्युतीय माइक्रो चाक्षुष नौन तार कंडक्टर्स जुड़े हैं। केवल नर्सें और डॉक्टर वर्चुअल स्क्रीन पर मरीज़ का जीवन-ग्राफ देख सकते हैं। ये है सन 2057, फरवरी का महीना, स्वामी सत्यानंद सरस्वती इंवैंटीलेटर पर हो रहे हैं पसीना-पसीना।

अस्पताल के बाहर उनके शिष्यों की फौज थी। सब दुःखी थे, केवल एक की ही मौज थी। वह था उनका शिष्य नकारू। नकारू यह सोच-सोच कर मगन था कि वी.आई.पी. स्वामी मरने वाले हैं। वही उनके साइबर डेटा और साइबर पीठ का उत्तराधिकारी होगा। पिछले लगभग एक महीने से वह स्वामी की मृत्यु की कामना कर रहा था। दस दिन से तो उसने उन्हें उम्रवर्धिनी औषधि व्यग्रआग्रा देना भी बंद कर दिया था। स्वामी को इस तथ्य की भनक नहीं लग पाई। किंतु सिस्टम के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ करने के कारण नकारू की स्नायु-दिमागी ड्राइव में कोई वायरस लग गया, जो ‘स’ ध्वनि को ‘ह’ में बदल देता था। अगर वह दूसरों के सामने स्वामी का नाम लेने का प्रयास करता था तो मुंह से निकलता था- ‘ह्वामी हत्यानंद हहह्वती’। सकारू जो कि स्वामी का दूसरा शिष्य था बिगड़ गया- ‘लज्जा नहीं आती, श्री श्री श्री का नाम ऐसे लिया जाता है’?

नकारू लज्जित तो नहीं हुआ, परेशान सा होकर कहने लगा- ‘हकारू! हायद कोई वायरह लग गया है, ह्री ह्री ह्री का जैहे ही नाम लेता हूं हत्यानंद हहह्वती ही निकलता है’। सकारू समझ गया। उसे अपना नाम ‘हकारू’ भी अच्छा लग रहा था, क्योंकि अन्दर ही अन्दर वह जानता था कि स्वामी की मृत्यु के बाद सारे हक तो उसी को मिलने हैं। जिसे हक मिले वो हकारू। वह नकारू की तरह नकारात्मक नहीं था। उसने कभी स्वामी की मृत्यु की कामना नहीं की। वह हृदय से साइबर-योगा-पीठ के हित की कामना करता था। माना कि चिकित्सा विज्ञान ने मनुष्य की आयु बढ़ा दी है पर अमर तो नहीं किया। वह सचमुच चाहता था कि श्री श्री श्री अभी धरती से विदा न लें। एजीरियल साइबर योगा विज्ञान के क्षेत्र में उनका भारी योगदान था। उन्होंने ब्रिटेन, अमरीका, यूरोप, जापान और अफ्रीका के बेरोज़गार नौजवानों को आउटसोर्सिंग में जॉब देकर मनुष्य की उम्र पांच सौ साल करने वाले प्रोजैक्ट पर काफी श्रम किया था। भारत के नौजवानों को ज़्यादा धन देना पड़ता था। विकास-अवरुद्ध पश्चिमी देशों के नौजवान सस्ते पड़ते थे। उम्र-वर्धन तकनीक पर शोध करते-करते वे स्वयं पर ही कोई ग़लत प्रयोग कर बैठे। सुषुम्नोत्तर तरंग-प्रवाह में विकारी बाधा आ गई। श्वास लगभग चली गई, मूर्छित हो गए। नकारू और सकारू ने उन्हें साइबरोलो अस्पताल के इंवेंटीलेटर के हवाले कर दिया। अब अंतिम सांसें गिन रहे हैं।

श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. 987654321 कैटेगरी-- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा इंवैंटीलेटर पर अर्धमूर्छित अवस्था में लेटे-लेटे अंतिम सांसें नहीं गिन रहे थे, वे गिन रहे थे उन महिलाओं की संख्या जो उनके संसर्ग में आईं। वे चाहते थे उनके दिमाग का स्त्री-डाटा करप्ट हो जाए। वे नहीं चाहते थे कि मरने के बाद उनके दिमाग की हार्ड-ड्राइव उनके मठ में जाए और शिष्य हतप्रभ रह जाएं। जीवन भर भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले अविवाहित सत्यानंद ने सत्य में किस-किस प्रकार के आनंद लिए थे, सब पता चल जाएगा उनके चेलों और चपाटों को।

तपस्विनी मेधा से उनके क्या रिश्ते थे। अमरीका से आई साध्वी जैनेथ, कज़ाकिस्तान की क्युदीला, जापान की फुईकुई... और... । अब उनके चेलों को यह भी पता लग जाएगा कि मठ के एक अरब हज़ार रुपए उन्होंने किस प्रकार होनोलुलू के हिडन-बैंक में जमा कराए। अरे! वे कोड नम्बर अब कैसे मिटाएं। और ये जो व्यर्थ का उत्तराधिकारी बना हुआ है नकारू, इसको सब कोड पता चल जाएंगे। किसी तरह मेरे दिमाग की हार्ड ड्राइव खराब होनी चाहिए, करप्ट होनी चाहिए। हाय! इंवैंटीलेटर से कब हटाया जाएगा मुझे। कम्बख़्त इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी। साइबर स्पेस की डैमोक्रेसी मेरी ऐसी की तैसी करा देगी।

कमरे में डॉक्टर आया। उसके हाथ में साइबर मोबाइल था। स्क्रीन के उपर हाथ फिरा कर वो उंगलियां उपर नीचे करता था, विंडो बदल जाती थी। कहने लगा— ‘स्वामी! आई थिंक आप मुझे सुन सकते हैं। आई कैन रीड यॉर माइंड, माइक्रो फैमिनन रेज़ बता रही हैं कि आप महिलाओं के बारे में सोच रहे हैं। ये सन दो हज़ार सत्तावन है, भारतीय मुक्ति संग्राम को दो सौ साल हो चुके हैं। इस साल भी साइबर स्पेस में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक क्रांतिकारी काम किया है। धरती के सारे मनुष्यों का जन्म-मरण का डेटा बेस और डेटा विश्लेषण तो पिछले साल ही पूरा हो गया था, आज डी.एन.ए एंट्रीज़ भी पूरी हो गई हैं। क्या आपको मालूम है कि इस धरती पर आपकी चार संतानें हैं....’।

इस से पहले कि डॉक्टर आगे कुछ कहता, स्वामी के शरीर में ज़ोर का कम्पन हुआ। इंवैटीलेटर की सुषुम्ना पाइप से धुआं निकलने लगा। स्वामी के दाँत बजने लगे। डॉक्टर खुश हो गया। ये शॉक ट्रीटमैंट नहीं अशोक ट्रीटमैंट था—‘पता नहीं आपको खुशी हुई या गम। मे बी कभी खुशी कभी गम। बट यू कांट इरेज़ दा फैक्ट। साइबर स्पेस में अब सब को पता चल जाएगा कि अनमैरिड स्वामी के उत्तराधिकार का मामला सुलझ गया है। स्वामी आपका सारा डेटा, पा जाएगा आपका बेटा और तीनों बेटियां। नकारू और सकारू बेकार लड़ रहे हैं।

इस आलेख में एक हज़ार एक सौ आठ शब्द पूरे हो चुके हैं। बोलो- ह्वामी हत्यानंद हहह्वती की जय!

द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...
http://www.chakradhar.com/

Monday, May 21, 2007

भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी-अशोक चक्रधर

जी दिल बल्लियों उछला और गमले के गुलाब की तरह खिला जब पाकिस्तान से मुशायरों की श्रृंखला में शिरकत करने का दावतनामा मिला। पाकिस्तान जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हवाई जहाज़ डबल-डैकर था। में था ऊपर की मंज़िल पर। मेरे एक ओर पद्मश्री बेकल उत्साही और दूसरी ओर शायर दीक्षित दनकौरी बैठे थे। नीचे की मंज़िल पर बाकी भारतीय शायर-हज़रात थे। दोपहर ढाई बजे उड़ना था लेकिन साढ़े तीन से पहले नहीं हिला।

हिलने से पहले हुई बिस्मिल्लाह। कुरान की आयत पढ़ी गई। मैंने भरपूर दुनिया घूमी पर हवाई जहाज़ में प्रार्थना होते हुए पहली बार सुनी। बेकल साहब ने बताया—‘ये सफ़र की दुआ है। इसमें कहा जा रहा है कि हम तेरे हवाले हैं, तू सबसे बड़ा है। तू हमारे गुनाहों को माफ करते हुए इस सफ़र को हमारे लिए आसान कर दे’।

तभी एक मधुर आवाज़ गूंजी— ‘सलाम वालेक़ुम ख़वातीनो हज़रात। इस परवाज़ पर हम ख़ुशामदीद कहते हैं। हमारी रवानगी में जो ताकीर हुई उसके लिए हम माज़रतख़्वाह हैं। ये ताकीर ऑपरेशनल वजूहात की बिना पर हुई। हम इंशाअल्लाह एक घंटा चालीस मिनट में कराची पहुंचेंगे। हमें उम्मीद है कि आपका सफ़र ख़ुशगवार ग़ुज़रेगा। ताकीर के लिए हम फिर से माज़रतख़्वाह हैं’।
बेकल जी के बिना बताए मैं समझ गया कि ताकीर माने देरी और माज़रतख़्वाही का मतलब है माफ़ी मांगना। मैं ऐन उस दिन जा रहा था जिस दिन अभि और ऐश एक होने वाले थे। मैं उनके जीवन के सफ़र की दुआएं करने लगा। शादी में जो ताकीर हुई उसके लिए माज़रतख़्वाही कौन करे। कुंडली में बैठे मंगल को माज़रतख़्वाही करनी चाहिए। जिसने अभिषेक के अब्बा को मन्दिरों में नंगे पाँव दौड़ा दिया।
जब हवाई जहाज़ कराची के हवाई-अड्डे पर उतरा तो बताया गया कि बैरूनी दर्जा हरारत बत्तीस डिग्री है और ताकीर के लिए हम माज़रत चाहते हैं। ‘दर्जा हरारत’ ज़ाहिर है तापमान के लिए कहा गया जिसे बत्तीस बताया गया। अंदरूनी ‘अंदर का’ होता है, बैरूनी ‘बाहर का’ होगा। हम प्राय: कहते है कि आज बदन में हरारत है, पर ये कभी नहीं सोचा कि हरारत का मतलब तापमान है। शब्दों के प्रयोग से हम उनके अर्थ बिना बताए सीख पाते हैं। बैरूनी, ताकीर, माज़रत और हरारत, इन चार शब्दों में जो शब्द दस दिन तक सर्वाधिक सुना वह था— ‘माज़रत’।

हवाई अड्डे पर जो लोग लेने आए वे असंख्य कारणों से माज़रतख़्वाह थे। जिस बस में बैठे, उसका ड्राइवर माज़रतख़्वाह था कि जब तक सब नहीं बैठ जाएंगे वह ए.सी. नहीं चलाएगा। शायर आठ, चाहने वाले साठ। चढ़ने ही न दें बस में। हमें पहचानने वाले भी वहां मिल गए। जिन्होंने टीवी पर ‘वाह-वाह’ देखा होगा। कोई ऑटोग्राफ के चक्कर में, कोई फोटोग्राफ के चक्कर में। मैंने उनसे माज़रत चाहते हुए बस में सीट पर कब्ज़ा किया। ए.सी. बैठा तो ए.सी. चला।

माज़रत शब्द अगर बहुत पहले आ गया होता तो महाभारत नहीं होती। क्षमा ही तो नहीं सीखी लोगों ने। कौरव-पाण्डव एक-दूसरे को क्षमा कर देते तो सुईं की नोक के बराबर भी लड़ाई नहीं होती। वेदव्यास ने वनपर्व में लिखा है-- ‘क्षमा धर्मा: क्षमा यज्ञ क्षमा वेदा क्षमा श्रुतम्’, क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है तथा क्षमा शास्त्र है। पर किसने जाना और किसने माना। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान भी कश्मीर के बारे में महाभारत पर आमादा रहते हैं। अरे! माज़रत पर आमादा रहो, महाभारत में क्या रखा है रे भइया।

पाकिस्तान के हर मुशायरे में हम यही मुहब्बत का पैगाम देते रहे। मैं ठहरा वहां के मुशायरों में जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हिन्दी कविता का अलग शिल्प, अलग विधान, अलग तरीका। उन्हें तो आदत थी दो-दो पंक्तियों के शेर सुनने की, अपनी कविता होती थी कथात्मक और लंबी। वहां के श्रोताओं के लिए नया तजुर्बा। पहले मुशायरे के बाद वहां के अदब-नवाज़ आयोजक जनाब अफ़ज़ाल सिद्दिक़ी ने कहा— ‘अशोक साहब, पता ही नहीं चलता कि कब तक आपकी गुफ्तगू चलती है और कहां आपकी शायरी शुरू हो जाती है। पर सामईन (श्रोताओं) ने पसन्द किया आपको। कुछ तो बेहूदे हर जगह होते हैं, उन्हें ग़ज़ल के अलावा कुछ समझ नहीं आता’। मैंने कहा- ‘चलिए कोशिश करूंगा। ग़ज़ल का शायर तो मैं नहीं हूं पर यदा-कदा कह लेता हूं’।

मुशायरे में लोग उछल-उछल कर दाद देते थे। अगर उत्साह में आकर श्रोता ताली बजा बैठें तो निज़ामत करने वाला यानी संचालक टोक देता था— ‘मैं बड़ी माज़रत के साथ आपसे ग़ुज़ारिश करना चाहता हूं कि तालियां बजाना अदब-नवाज़ी के एकदम ख़िलाफ है। मेहरबानी करके तालियां न बजाइए, दाद दीजिए, वाह-वाह कीजिए’।

मैं हैरान! अरे अपने यहां तो कविगण तालियों की भीख मांगते हैं। तालियों के लिए कटोरा-सा लेकर खड़े हो जाते हैं। कोई माज़रत-फाज़रत नहीं करते हैं। धड़ल्ले से बेशर्म होकर कहते हैं कि तालियां बजाइए। न बजाओ तो श्राप देने लगते हैं-- तालियां नहीं बजाईं तो आपको देश-द्रोही माना जाएगा, तालियां नहीं बजाईं तो आप अगले जन्म में घर-घर जाकर तालियां बजाएंगे, तालियां बजाइए मेरे बाल-बच्चे आपको दुआ देंगे। मैं अपने गीत की यही लाइन तब तक दोहराता रहूंगा या रहूंगी जब तक आप मिलकर तालियां नहीं बजाएंगे। ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं कि क्या कहिए! और वहां अदब-नवाज़ सामईन माज़रतख़्वाह हैं।

अफ़ज़ाल साहब की नसीहत पर मैंने अपनी दरिन्दा-परिन्दा वाली ग़ज़ल सुनाई। मौक़े की नज़ाकत देखते हुए उसका एक शेर बदल भी दिया—

‘भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी,
ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’।

इस पर तालियां न रुकीं और संचालक महोदय भी न रोक पाए। तालियां इतनी पुर-बुलंद, इतनी सामूहिक और इतनी स्वत:स्फूर्त थीं कि अदब-नवाज़ी की रवायात ध्वस्त हो गईं। मैंने कोई शायरी नहीं की थी, बल्कि एक ऐसी इच्छा को अभिव्यक्ति दी थी जो पाकिस्तान की जनता शिद्दत के साथ महसूस कर रही थी। ‘ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’, ये बात मनमोहन सिंह और मुशर्रफ नहीं कह सकते और न सुन सकते। लेकिन एक शायर कह सकता है, एक कवि कह सकता है। उसके लिए धरती पर खीचीं गई सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं। वह तो दिलों के बीच की सीमाओं और दीवारों को तोड़ डालता है। धरती पर भौगोलिक सीमाएं भले ही बनाए रखो पर दिलों में खिंची सारी सीमा-रेखाओं को मिटा दो।

दस दिन खूब अच्छे बीते। सुबह कहीं इस्तकबालिया, दिन में कहीं लंच, शाम को कहीं चाय, रात में कहीं शानदार डिनर और उसके बाद मुशायरा, जिसमें पचास और सत्तर के बीच में शायर हज़रात। संचालक को हर बार दोहराना पड़े– ‘मैं माज़रत के साथ कहता हूं कि इख़्तेसारी से काम ले’। इख़्तेसारी बोले तो संक्षेप में बोलें। एक जगह तो ऐलान कर दिया गया कि अपने पसंदीदा पाँच शेर सुनाएं सिर्फ़। फ़ज़र की अज़ान से पहले मुशायरा ख़त्म करना है। मैंने तो एक जगह कह भी दिया—

एक शायर के लिए भारी है,
इख़्तेसारी तो एक आरी है।
यहां आ के मुझे महसूस हुआ
कम सुनाने में समझदारी है।

बैरूनी, ताकीर, माज़रत, हरारत, इख़्तेसारी जैसे शब्दों के साथ पाकिस्तानियों की मुहब्बतें लेकर लौटे। मुम्बई के हवाई अड्डे पर वही उद्घोषणाएं— ‘इंशाअल्लाह, हम मुम्बई पहुंच गए हैं। बैरूनी दर्जा हरारत चौंतीस डिग्री है’। और चूंकि कोई ताकीर नहीं हुई थी सो माज़रत भी नहीं की गई। मैं सोच रहा था कि अगर कोई भी आसानी से माज़रत कर ले तो बैरूनी तो क्या, अन्दरूनी तापमान ठीक हो जाता है। घर आए तो अमित जी के यहां से आई अभि-ऐश की शादी की मिठाई खाई। पड़ोस में बांटी, जिनको नहीं मिल पाई उनसे माज़रत कर ली।

द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...
http://www.chakradhar.com/

Friday, May 11, 2007

कृत्या - इन्टरनेशनल पोयट्री फेस्टिवल-जुलाई-2007

Kritya 2007 takes place inThiruvanathapuram, Kerala
From 21.07.2007 to 23.07.2007.
Poets of various languages from all over India and
various countries abroad will be attending.



जानकारी के लिये यहाँ पढेँ...
http://kritya.in/0212/En/Festival%20of%20poetry-3.html

Tuesday, May 01, 2007

एचिंग टेक्नीक बाइ - क्लादिया ह्यूफ्नर



मेरी उनसे मुलाकात http://www.artwanted.com/ के द्वारा हुई..
जब उनके कमेंट्स मैने अपनी एक पेंटिंग पर देखे...
http://www.artwanted.com/imageview.cfm?id=473554

"10-Mar-07 03:33 AM
Claudia Huefner Bahut manohar hai!! Very interesting, very expressive! "

एक क्लिक से पता चला कि वह एक बडी अच्छी चित्रकार है , जिनका एचिंग विधा पर अच्छा कमांड है.. उनके चित्र देखे..तो बडा आश्चर्य हुआ.. एक जर्मन का हिन्दी प्रेम..आधे से ज्यादा चित्र हिन्दुस्तानी थे..अमिताभ बच्चन की वह जबरजस्त फैन है.. ई-मेल पर उनसे काफी बाते हुई..वह पिछ्ले 3 महीने से जर्मनी मे हिन्दी सीखती है..

हिन्दुस्तानी कल्चर और आर्ट मे काफी दिल्चस्पी है..उनकी हिन्दी और अंग्रेजी मिश्रित ई-मेल पढ कर बडा आनन्द आता है..लगता ही नही की वह जर्मन है..हाँलाकि लिख्नने मे अभी रोमन लिपि का इस्तेमाल करती है..पर जल्द ही यूनीकोड सीख जायेगी...

अभी हाल मे ही उन्होने हमारी शादी पर एक सुन्दर सा उपहार भेजा ..संगीता का एक एचिंग ...
यहाँ देखिये...
एक तस्वीर को देखकर चीजो को बेहद खूबसूरती से निकाला है.. जिसे शब्दो मे कहना जरूरी नही लगता है..देखकर ही पता लग जाता है. ..
एचिंग टेक्नीक है क्या::
एचिंग कला की एक ऐसी विधा है जो एक मेट्ल प्लेट (engraved plate) पर बरीक लाइन के द्वारा चित्र को carve करके की जाती है और फिर उसका प्रिंट लिया जाता है..
क्लादिया एचिंग कैसे करती है...वह यहाँ बता रही हैँ..
Etching technique:
Engraving technique, called etching. The attached pictures shows you how the plane look like, where I engraved a portrait with a special etching steel-needle - in mirror-inverted way. This plane is rubbed in with special printingcolors (ink): The plate is inked all over with a gauze (Marc Doutherd is ready for printing), and then the ink wiped off the surface, leaving only the ink in the etching lines, I do this it with my palm to get a soft surface (Marc Doutherd is now ready for one printing, next picture: plate of Amitabh Bachhan ji-without color , only engraved, some tools and paper.)

Then plate is put through a high-pressure printing-press together with a wettish sheet of special paper - in a limited number of printings, for each print all color preparations above must be repeated. You can see below: my printing press, the plate and one print of ArtWanted-friend Shashvat Doorwar. I make more than one print, in different colors, as you also can see in the example of Dr. Manmohan Singh ji.

Some little helps with paintbrush and coffee (!) finalizes the best of all prints to the gift, I will make.


उनके अन्य चित्रो भी को यहाँ देख सकते है..

Saturday, April 28, 2007

8वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन

प्रसन्नता की बात है कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए विदेश राज्य मंत्री श्री आनन्द शर्मा ने तिथियों की विधिवत घोषणा की। सम्मेलन के लोगो और वैबसाइट का लोकार्पण किया।
8वां विश्व हिन्दी सम्मेलन 13 से 15 जुलाई तक न्यूयार्क में आयोजित होगा। इस सम्मेलन का विषय विश्व मंच पर हिन्दी रखा गया है।

वैबसाइट है--
http://www.vishwahindi.com/

सम्मेलन से जुड़ी सारी जानकारियों के लिए कृपया वैबसाइट पर जाइए और अपनी सहभागिता सुनिश्चित कीजिए।

धन्यवाद!

Thursday, April 26, 2007

कवियित्री महादेवी वर्मा

कवियित्री महादेवी वर्मा



दोस्तो,
कवियित्री महादेवी वर्मा पर एक लेख विकिपीडिया मे तैयार हो रहा है..उसके लिये महादेवी वर्मा से सम्बन्धित जानकारी और तस्वीरो की आवश्यकता है..यदि आप भेज सकेँ तो कृपया निम्नलिखित पते पर भेज देँ. सहयोग की आशा रहेगी.


हमारा पता है..



धन्यवाद के साथ.
-विज

Thursday, April 19, 2007

कोई दीवाना कहता है - ए बुक कवर



बुक कवर डिजाइन : विजेन्द्र एस. विज
कृति : अनटाइटल्ड्, वर्ष-2006
17 x 21 इंच, डिजिट्ल आन कैनवस
http://www.vijendrasvij.com/

Monday, March 19, 2007

बेचैनी-एक कविता

दिनोँ से
पन्ने पलटे नहीँ
सारे सफेद से पड गये है...
कुछ धुँधले भी...
जैसे,
कभी कुछ लिखा ही न गया हो...
जाने कब रंगे जायेंगे..
लाल, पीली, नीली..
और हरी स्याही से...
कभी कुछ अख्स उभरते तो हैँ..
पर गड्ड-मड्ड हो जाते हैँ
एक पल मेँ...
कोई भी शब्द एक
सीधी लकीर पर नहीँ दौडते..
कभी कुछ चलते तो है..
पर थक-कर चूर हो
आधे रस्ते से वापस आ जाते हैँ..
मै इन्हे पकडना चाहता हूँ..
उँगलियो से इन्हे छूना चहता हूँ...
इन पर अपने निशान छोडना चाहता हूँ..
पर मेरे हाँथ लगाते ही यह
छुई-मुई से मुरझा जाते हैँ...
..
विज, मार्च 2007
http://www.vijendrasvij.com