Thursday, May 31, 2007

वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

यह कविता काफी पहले लिखी थी... कृत्या अक्टूबर-2005 अंक मे प्रकाशित हुई थी..आज कृत्या पलटते नजर आ गयी...यहाँ आप सभी के साथ भी बाँट रहा हूँ...बस ऐसे ही..

एक कविता
-----------

दिल्ली की ठंडी सुबहों में
अक्सर
एक जिन्दगी को
देखा करता था
बुझते हुए,

वह पेड़ के तले
इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
काँपते हाथों से
बीनने की नाकाम
कोशिश करती

कभी पास से गुजरते को
असहाय निहारती,
कभी ना जाने क्या बुदबुदाती

मैं जब भी
उसके पास से गुजरता
सहम जाता,
टटोलने लगता
जेब में पड़े चन्द सिक्के
तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते

तमाम कोशिश के बावजूद
मेरा हाथ नहीं छूट पाता
मेरी जेब की गिरफ्त से,
और मैं तेज कदमों से
आगे बढ़ जाता

उसकी अस्पष्ट
पर रुह को कंपकपाँने वाली
बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
दूर तक पीछा करती मेरा

अब,
उसकी बुदबुदाहट
तब्दील हो गई है चीख में,

हालाँकि मैंने
बदल लिया है रास्ता
फिर भी वह आवाज
अक्सर मेरा पीछा करती है ।

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना है।बधाई।

सुनीता शानू said...

विजेन्द्र भाई आपने जिन्दगी के उन अहसासो को कविता में पिरो दिया है जो अक्सर सभी के साथ होते है..बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है...हर गली नुककड़ पर एसी आवाजे सुनने को अवश्य मिलती है...सचमुच दिल दहल जाता है सुन कर उनकि करूण पुकार मगर क्या कभी ये सोचा है हमारे चण्द सिक्के उनके लिये क्या कर सकते है..कभी-कभी तो एसा लगता है हम चंद सिक्को में उनकी दुआयें खरीद रहे है और कभी एसा लगता हैकि हम ही है उनकि इस हालत के जिम्मेदार...
एक बार फ़िर शुभकामनाये आपकी कविता के लिये..

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

बहुत गहरे भाव हैं, विज. आपके भावुक हृदय का चित्रण..आज फिर से पढ़कर अच्छा लगा. बधाई.

विजेंद्र एस विज said...

दोस्तो, आप सभी ने मेरी इस रचना को अपने दिलोँ मे जगह दी..बहुत बहुत शुक्रिया व आभार के साथ आपका ही
-विज.