Monday, December 25, 2006

नव वर्ष की शुभकामनायेँ!!!

दोस्तो को नव वर्ष क्रिसमस की शुभकामनायेँ!!!॥


Monday, December 04, 2006

एकल काव्य पाठ - डा. अशोक चक्रधर

दोस्तो,
यह एक स्वर्णिम अवसर है कि आप डाक्टर अशोक चक्रधर की लुभावनी और् मनोहारी कविताएं जी भर कर सुन सकते हैं। ऐसा मौका चूकने का नहीं होता। अभी से इस कार्यक्रम में आने की मानसिकता बना लीजिए। मुझे उम्मीद है कि आठ दिसम्बर का यह काव्य-पाठ सुनक आप कम से कम आठ महीने तक तरोताज़ा रहेंगे। अपने साथ किसी को भी ला सकते हैं। बस इतना है कि अच्छी सीट पानी हो तो समय से पन्द्रह मिनट पहले आना होगा। आशा है कि उस दिन आप के दर्शन होंगे।
नोट: वैसे तो प्रवेश पाने में कोई असुविधा नहीं होगी पर फिर भी सुरक्षा की द्रष्टि से अगर इसका एक प्रिंट आउट निकाल लेंगे तो आपको सुकून रहेगा।


Dear Friends,
Here is a great opportunity for you to enjoy an entire evening of poetry by Dr. Ashok Chakradhar. Solo performances like this do not happen everyday, so make sure that you mark your calendars from now.
Reaching the venue 15 minutes before time is a good idea, since seating will be on first come first serve basis. Please pass the word around and help us make the night a grand success.

Hope to see you there.

Programme Details:
Ekal Kayapath: Ashok Chakradhar
Date: 8 December, 2006
Time: 5:30pm
Venue: FICCI Auditorium, Tansen Marg (Near Mandi House), New Delhi.
Organised by: Hindi Academy, Delhi

Friday, October 20, 2006

दीवाली की शुभकामनायेँ!!!!

दोस्तो को दीवाली की शुभकामनायेँ!!!!

Thursday, August 03, 2006

“द विडोज आफ वृन्दावन”

अराध्य,
मान कर ही तो उन्होने भी
की होगी पूजा उसकी...

शायद,
यह मानकर की थाम लेगा वह,
यह तेज़ बाढ सी
जो पुरातन से चली रही है
यहाँ,शोषित होने...

कभी,
खिली तो एक अध-खिली
और,
कभी..भिखारन
तो एक पुजारन बनकर....

वह,
दूर बैठा बस रास रचाता रहा
बासुरी की धुन मे मगन,
गोपियो के इर्द-गिर्द लिपटा...

नहीँ,रोक सका है
वह देवकी नन्दन भी
उन विधवाओ को आने से
वृन्दावन की
इन तंग गलियो मे...


Wednesday, June 21, 2006

कागज की कतरने

यादो के हर एक दामन से,
उन पलो के लम्हे चुराकर...

कागज की कतरनो पर, बयान किया है...
अपना प्यार बहुत है, तुम्हारे लिये
य़े अब सरेआम किया है...

Monday, June 19, 2006

द डिफरेंट स्ट्रोकस.. 01


तुम,
बस दूर खडे
एक मूक दर्शक की भाँति
आवाक देखते रहे...

और,
मुझे...उन चन्द
आडी-तिरछी लकीरो ने
असहाय बना दिया....

तुम!!!
चाहते तो रंगो की एक दीवार
खडी कर सकते थे.....

जुगलबन्दी - प्रत्यक्षा सिन्हा

मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश, चुप लडकी
जो सिर्फ आँखो से बोलती है,
उसके गालो के गड्डे बतियाते है
उसके होठो का तिल मुस्काता है
उसकी उगलियाँ खीचती है, हवा मे
तस्वीर, बातो की
पर, जब मै लोगो के साथ होती हूँ
मै बहुत बोलती हूँ...
पहाडी झरनो की तरह मेरी बाते
आसपास बह जाती है,
सिगरेट के छल्लो की तरह
हवा मे तैरती है..
लोग कहते है मै बहुत बातूनी हूँ..
पर लोगो को नही पता
मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश चुप लडकी...
जो सिर्फ आंखो से बोलती है...

कविता- प्रत्यक्षा सिन्हा

Friday, May 12, 2006

रितुपर्ना तुम आज भी नहीं आयी

कुछ
धुधली पड गयी लकीरो को
फिर से गाढा किया...

उन पर कुछ रंग फेंके
लाल हरे नीले सफेद...

अब
कैनवस का कोई हिस्सा
खाली नही रहा.....

बडी खामोशी के साथ
उन फैले पडे रंगो को
घंटो निहारता रहा.....

अचानक,
गाढी पड चुकी लकीरे
अब अस्पस्ट नजर आने लगी...
और फिर,
पूरा का पूरा कैनवास खाली
बिल्कुल सफेद..
जैसे कभी वहा रंग थे ही नहीँ..
फ़ीकी पड चुकी लकीरेँ
अब शब्दो मे तब्दील हो गयी...

हाँ..यही शब्द तो थे.....
”रितुपर्ना तुम आज भी नहीं आयी”

Wednesday, March 29, 2006

जुगनुओ अब तुम सितारे हो गये

तना गहरा सन्नाटा
बडा ही भीषण
और डरावना
कहाँ गये सब....

अब यहाँ
चिडियो का कलरव
भी नही गूँज रहा
आसमान भी इतना
शांत क्यूँ है...

कहाँ गुम हो गयी
सूरज की तेज़ गर्मी
और,
बाद्लो की
उमड घुमड....

अब वे
यहाँ क्यू नही आते
क्या पथिक अपना
रास्ता भूल गये
या फिर,
जुगनुओ!!! अब तुम सितारे हो गये...

Monday, January 23, 2006

मेरे द्स्तावेजो की दुनियाँ

रसो से बन्द पडे
मेरे दस्तवेजो की दुनिया
बड़ी ही दिलकश है
एक उम्र का अनुभव है
इनमे...

एक अर्थहीन पीडा
यहाँ,
पन्नोँ मे साँस लेती है...
कितनी ही स्मृतियो के
बीज बोये हैं मैने
इंनके आंगन मे....

अनुभवओ की मिठास है यहाँ
और....
जीवन की दहकती हुई
ख़ुशियो और गमो के
कितने कशीदे गढे हैं इनमे...

मेरी अपनी जमीन है यहाँ
एक भाषा...
जहाँ..
प्रेम, स्वप्न और प्रार्थना का जिद्दीपन है
जो अभी अभी इतिहास हुआ लगता है....

कितनी ही उदास शामे
गुजारी है मैने
उन खामोश टिमटिमाते हुए
सितारो के साथ....

मेरी वेदना के सघन वन मे
कितनी पक्त्तियाँ हैं,
जो सपाट सी हैं
पर नजर नही आती....

दुनिया को बदल डालने की
धारदार अभिव्यक्ती भी है
और...
कितने ही चेहरो की
शराफत मे छिपी हुई
कुटिलता के बयान भी....

मेरी अंतह्करण की हूक से
निकले हुए वह तेज़ाबी शब्द
जिनमे...
चीख, करुणा, बेबसी
और...
चेतना के विराट सौन्दर्य से
दूर ले जाता अन्धकार है...

किंतने ही पन्ने हैं यहाँ...
जो खामोश रखकर भी
खामोश नही हैं...

हाँ,
व्यथा है...
मेरे इन दस्तावेजॉ मे
एक अ-नायक की..
जिसे...
अपने ही घर की तलाश है....

Friday, January 06, 2006

पेज नम्बर-10

हाँलाकि,
नही लिखना चाहिये
कुछ भी अब
उसके बारे मे...

पूरे
बीस पेज पलटने होंगे
उस दसवेँ पेज मे
पहुँचने के लिये...

फिर,
एक प्रश्न चिन्ह लगेगा
और,
तब तुम भी सवाल करोगी
मुझसे...
कि,
कहाँ गये बीच के
सत्रह, अट्ठारह पेज...

अब तो एक धुन्धली
आउट लाइन बन चुकी है
वह,
मेरे कैंनवस की...

आज अरसे के बाद
इन लकीरो को
गाढा करने की कोशिस
करते वक्त
मेरे हाँथ काँप रहे थे...