Monday, July 09, 2007

सृजन शिल्पी के सवाल मेरे जवाब...

आज सृजनशिल्पी जी की पोस्ट “कला, कलाकार और कल्पना" href="http://srijanshilpi.com/?p=131">कला, कलाकार और कल्पना” पढी...
बडा ही सकरात्मक लेख है...
अभी पिछले हफ्ते उनसे गूगल पर बातचीत हुई...जिसके कुछ अंश उन्ही से इजाजत लेकर यहाँ दे रहा हूँ...कला, कलाकार और उसकी कल्पना के बारे मे उन्होने मुझसे कुछ दिलचस्प सवाल किये...जिनके उत्तर मै यहाँ लिख रहा हूँ....कितनी सफलता मुझे मिली है...वह तो आप ही बता सकेगे...


srijanshilpi: अपने अगले लेख के संदर्भ में, आपकी एक टिप्पणी चाहता हूं

srijanshilpi: कलाकार, अपनी कला में यथार्थ और कल्पना के बीच समन्वय किस प्रक्रिया के तहत करता है
12:08 PM आप इस प्रश्न को अपने हिसाब से समझ सकते हैं

12:09 PM srijanshilpi: और अपने अनुभव से कुछ बताइए

srijanshilpi: किताबी संदर्भ तो मेरे पास पर्याप्त है

12:11 PM srijanshilpi: जैसे किसी बच्चे या फूल को हम रोज देखते हैं और उसे सामने देखकर वैसी कोई प्रतिक्रिया हमपर नहीं होती जो उसी बच्चे या फूल या दृश्य की पेंटिंग को देखकर होती है तो कलाकार यथार्थ में ऐसा क्या और कैसे जोड़ता है जो उसे एक कला में रूपांतरित कर देता है
srijanshilpi: इस सप्ताहांत तक मेरे प्रश्न के संदर्भ में यदि आप कुछ प्रकाश डाल सकें तो उसे अपने लेख में समाहित करने का प्रयास करूंगा

बडे ही दिलचस्प सवाल है आपके, इससे आपकी कला मे गहरी दिल्चस्पी का भी पता लगता है....
आपके प्रश्नो के उत्तर देने की मेरी एक कोशिश भर है....

“कलाकार, अपनी कला में यथार्थ और कल्पना के बीच समन्वय किस प्रक्रिया के तहत करता है”

मेरी नजर मे कोई विषेश व्यक्ति ही कलाकार नही होता...( यहाँ जब बात चल रही है चित्रकला से सम्बन्धित है तो मै चित्रकार के बारे मे कर रहा हूँ..)

”कलाकार तो सभी होते है...सजीवो मे सृजन करने और व्यक्त करने की क्षमता होती है....फर्क सिर्फ इतना है कि किसी का गोला गोल, तो किसी का गोला चौकोर होता है....यदि रियाज किया जाये तो चौकोर गोला भी गोल हो सकता है...”

यथार्थ, को सामने रखकर ही कुछ कल्पनाये की जाती है...जैसे कभी भी कोई चीज सम्पूर्ण नही होती और हम उसकी सम्पूर्णता के लिये कल्पनाये करते है...हाँ यह जरूरी नही कि हमारी कल्पनाओ को सही दिशा मिल जाये..

एक चित्रकार की भी यही कोशिश होती है कि वह कल्पनाओ को उनका ही एक आकार दे सके, अपनी दृष्टि दे सके..... एक आइना दे सके...फिर हम उन रोज मर्रा की चीजो को उसकी नजर से देखते है तो वह खास बन जाती है..खूबसूरत लगने लगती है..और हम अनायास ही उन्हे देख कर कुछ कह उठते है....या यह कहेँ प्रतिक्रियाये जन्म लेती है...

srijanshilpi: जैसे किसी बच्चे या फूल को हम रोज देखते हैं और उसे सामने देखकर वैसी कोई प्रतिक्रिया हमपर नहीं होती जो उसी बच्चे या फूल या दृश्य की पेंटिंग को देखकर होती है तो कलाकार यथार्थ में ऐसा क्या और कैसे जोड़ता है जो उसे एक कला में रूपांतरित कर देता है....

मेरे खयाल से आपके इस प्रश्न के भी मै करीब आ गया हूँगा...

”ठीक वैसे ..जैसे हम किसी चीज कैलेंडर को देखते है..या कोई फोटो...या जैसा आपने कहा..किसी बच्चे , फूल को देखते है... जो हू...बहू दिखे...हम पर वाकई कोई विषेश प्रतिक्रिया नही होती...बनिस्पत अगर हमे उसकी पेंटिंग को देख होती है...तो यहाँ भी वही बात है.. हम यथार्थ को कल्पनाओ के साथ देखते है...और अपनी दृष्टि देते है.. हममे उस पेंटिंग को देख स्रज़नात्मक् क्षमता, कल्पनाये और दृष्टिकोण एकसाथ मिल जाते है..तभी शायद प्रतिक्रियाये जन्म लेती होंगी....

चित्रकार यथार्थ के उन पहलुओ को उजागर करता है जिन्हे हम देख नही पाते या देखने की कोशिश नही करते..या देख कर भी अनदेखा कर देते है....और फिर् हम उन्ही चीजो को चित्रकार की नजर से देखते है...या किसी कलाकृति के माध्यम से देखते है.. तो उन मामूली सी दिखने वाली चीजो मे भी खूबसूरती नजर आती है....क्यूँकि तब हम उनके सभी पहलुओ को एकसाथ देख पाते है..

“क़ूडे के ढेर से सिर्फ बदबू ही आती है... यह यथार्थ है...
क़ूडे के ढेर से सिर्फ बदबू ही नही आती है.. और भी कुछ होता है... यदि उन्हे आकार दे तो ...वह खूबसूरत लगेगी...... यह एक कोरी कल्पना है....

“आपने चित्रकार की नजर से कचरे का ढेर देखा.... उस कचरे मे बडी सारी चीजे थी...जैसे सडे कागज, खाना, बरसाती ...पुरानी घिसी पिटी चप्पल.......
अहा, क्या रंग है चप्पल का.... शायद हवाई चप्पल है... गुलाबी रंग की होती तो और खूबसूरत लगती....अभी पूरी टूटी नही......जुडी होती या फिर पूरी टूटी होती तो और भी खूबसूरत दिखती....अरे, कूडे के ढेर को यहाँ से देखो .....नीला आसमान साफ नजर आ रहा है उसके बैकग्राउंड् मे....और डूबते हुए सूरज की हल्की रोशनी टूटे चप्पल पर भी पड रही है...सुनहला लगने लगा है.... कचरे का ढेर तो एक विशाल पहाड जैसा.. ..क्या चित्र बन रहा है... चलो फिर मन मे इसे एक आकार देते है....क्या गजब का चित्र बना है...”
शायद, ऐसे ही रची जाती होंगी कलाकृतियाँ....

"लियनार्दो की मोनालिसा भी ऐसे ही रची गई होगी...
क्या थी, एक जीती जागती हमारी ही जैसी आँख नाक पैर वाली आम इंसान ही...तो हम क्युँ न् देख सके उसकी खूबसूरती को.. लियनार्दो ने ही क्यो देखा...उसी ने हमे उसकी खनकती/ मुस्कुराती हँसी दिखाई...उसकी मुस्कुराहट् का राज, उसकी आंखो की गहराई...और वह तमाम अनदेखे पहलू भी दिखाये थे...मोनालिसा कोई भी हो सकती है... अभी भी यहाँ हो सकती है...फर्क यही है कि हम उसे देख नही पा रहे... बरसो पहले ही दिखी थी लियनार्दो को... हमे फिर से दिख सकेगी..यदि हम यथार्थ के साथ अपनी कल्पनाओ के रंग भर देंगे."



यह मेरे अपने व्यक्तिगत विचार है..मेरी अपनी सोच... दावा नही....सभी की अपनी-अपनी विचारधाराये हो सकती है.....उम्मीद है, आपके पूछे गये प्रश्नो के उत्तर मिल गये होंगे....
और, सच बात तो यह है कि इन सभी सवालो के जवाब... एक चित्रकार नही...उसकी कला के कद्रदान बखूबी दे सकते है......जिसने महसूस किया होगा...असल उत्तर वही होंगे.....

-विज

Friday, July 06, 2007

अक्सर, मौसमो की छत तले

किसी मौसम में
एक इतिहास
मैं भी रचना चाहता था...

कभी बारिश की
बून्दों की टपटप के बीच
तो कभी,
हरी, पीली, बसंती
सरसों के साथ....
और,
कभी लपकाती हुई तारकोली
दिल्ली की सड़कों में
आवारा बन....

हाँ,
एक मौसम चला था
मेरे साथ भी,
कुछ पल....
सर्द कोहरे की धुन्ध मे
लिपटा हुआ....

अलसाई हुई,
सुबहो के साथ
एक दिन,
करवट बदली थी इतिहास ने.....

अपनी कँपकपाती हुई
उंगलियों के बीच फँसी
उस अधजली सिगरेट के
दो कश लिए थे...बस
तभी,
दूर कहीं कोहरे में गुम
उसकी...
सफेद आकृति ने
करीब आकर साँस ली...
और,
कर गयी स्तब्ध....

ठगा सा देखता रहा
उसे, यूँ ही....
उंगलियों की जलन ने
आभास कराया मुझे,
मेरे अपने
वहाँ होने का....

कितने मौसमो की उम्र
साथ लिये...
जिये थे वह
हसीन से लम्हे
मैने...

अब तो,
पीले पत्तों का मौसम
जा चुका है.....
बावजूद इसके....
कभी बन ना सका मै,
उसके प्रेम का
कोई भी एक हिस्सा...

और,
दूर खड़े देखता रहा
बस यूँ उसे,
किसी और का इतिहास बनते....

अक्सर,
मौसमो की छत तले
आज भी वह,
बेहद याद आती है......

-विज
( नवम्बर 2004. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)