Thursday, May 31, 2007

वह आवाज अक्सर मेरा पीछा करती है

यह कविता काफी पहले लिखी थी... कृत्या अक्टूबर-2005 अंक मे प्रकाशित हुई थी..आज कृत्या पलटते नजर आ गयी...यहाँ आप सभी के साथ भी बाँट रहा हूँ...बस ऐसे ही..

एक कविता
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दिल्ली की ठंडी सुबहों में
अक्सर
एक जिन्दगी को
देखा करता था
बुझते हुए,

वह पेड़ के तले
इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
काँपते हाथों से
बीनने की नाकाम
कोशिश करती

कभी पास से गुजरते को
असहाय निहारती,
कभी ना जाने क्या बुदबुदाती

मैं जब भी
उसके पास से गुजरता
सहम जाता,
टटोलने लगता
जेब में पड़े चन्द सिक्के
तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते

तमाम कोशिश के बावजूद
मेरा हाथ नहीं छूट पाता
मेरी जेब की गिरफ्त से,
और मैं तेज कदमों से
आगे बढ़ जाता

उसकी अस्पष्ट
पर रुह को कंपकपाँने वाली
बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
दूर तक पीछा करती मेरा

अब,
उसकी बुदबुदाहट
तब्दील हो गई है चीख में,

हालाँकि मैंने
बदल लिया है रास्ता
फिर भी वह आवाज
अक्सर मेरा पीछा करती है ।

मेरी पहली सामूहिक चित्र प्रदर्शनी व पहला 'वाटर कलर' चित्र

सन-1994 मे बना 'वाटर कलर' का चित्र शीर्षक "मदर एण्ड चाइल्ड" पहला इसलिये है कि यह सबसे पहले किसी चित्र प्रदर्शनी मे प्रदर्शित हुआ.


16 जनवरी 1997 , इलाहाबाद संग्रहालय (Allahabad Museum) मे एक सामूहिक चित्र प्रदर्शनी हुई..जिसमे मेरे कुल 5 चित्र प्रदर्शित हुए..उपरोक्त चित्र उनमे से एक है..बाकी के चार चित्र यहाँ नीचे है...

































4 फरवरी 1997 के "अमृत प्रभात" अखबार की वह कटिंग जिसमे इस चित्र प्रदर्शनी के बारे मे लिखा गया..यह पहली अखबार की कतरन थी जिस पर मेरे चित्रो के बारे मे लिखा गया..यहाँ आप पढ सकते है..यह सभी चित्र 'दारागंज इलाहाबाद' के मेरे एक छोटे से कमरे मे बनी है..और यह कतरन मुझे उस दुकान से मिली जहाँ हम चाय और सुबह का अखबार पढने जाया करते थे. .जिसकी खुशी मेरे दिल मे आज भी तरोताजा है..

Wednesday, May 30, 2007

मेरा पहला तैलीय चित्र

" मदर एण्ड चाइल्ड" ,
वर्ष -२००४, आयल आन बोर्ड

आयल कलर से बनी मेरी पहली पेंटिंग है.. शीर्षक है " मदर एण्ड चाइल्ड" जिसे सन - 1994 मे "इलाहाबाद संग्रहालय" मे चल रही वर्कशाप के दौरान बनाया था..हाँ हस्ताक्षर नये है..सन 1994 मे मुझे आयल कलर की ट्यूब के बारे मे जानकारी हुई..इससे पहले मै एशियन पेंट से ही यदा कदा तस्वीरो मे रंग भरता था ..या फिर स्डूडेन्ट क्वालिटी का कैमेल वाटर कलर...वर्कशाप के दौरान इलाहाबाद से जुडी बडी सारी यादे तरोताजा है.. कोशिश करुँगा इन्हे शब्द दे सकूँ..शायद आपको भी पसन्द आये।

Wednesday, May 23, 2007

सारा डेटा पा जाएगा बेटा-अशोक चक्रधर

अधिक नहीं कुछ चाहिए,
अधिक न मन ललचाय,
साईं इतना दीजिए,
साइबर में न समाय।

भक्त की ये अरदास सुनकर भगवान घबरा गए। क्या! भक्त इतना चाहता है जो साइबर में न समाए! अरे भइया! इतना तो अपने पास भी नहीं है। अपन को मृत्युलोक का डेटा लेना होता है तो साइबर स्पेस में सर्च मारनी पड़ती है। यमराज का सारा काम आजकल इंटरनेट पर चल रहा है। पूरे ब्रह्मांड के इतने ग्रह-नक्षत्र, उनमें इतने सारे जीवधारी! किसकी जन्म की किसकी मृत्यु की बारी? सब नेट से ही तो ज्ञात होता है। डब्ल्यू-डब्ल्यू-डब्ल्यू यानी वर्ल्ड वाइड वेब अब बी-बी-बी हो गया है। बी-बी-बी अर्थात् बियोंड ब्रह्मांड बेस। धरती पर हिन्दी का एक सिरफिरा कवि इसको ‘जगत जोड़ता जाला’ बोलता है। कहता है--
‘साइबर नेट बने हुए, इस जी के जंजाल,
अपने ऊपर बिछा है, जगत जोड़ता जाल॥’
बहरहाल, भगवान बड़बड़ा रहे हैं— ‘बताइए! भक्त ब्रह्मांड से अधिक चाहता है। धरती पर ‘साइबर स्पेस’ कहते हैं, पर हम भगवानों के बीच इसे ‘स्पेस साइबर’ कहा जाता है। पता नहीं किस साइबर की बात कर रहा है भक्त’। भगवान व्यथित हैं।

जिस भक्त ने भगवान को कष्ट दिया वह इस समय एक अस्पताल में लगभग मृत्यु शैया पर है। उसकी आयु एक सौ छ: वर्ष हो चुकी है फिर भी जीने की इच्छा कम नहीं हुई। कहने को ही भक्त है वह। दरअसल, वह स्वयं ही भगवान बनने की फिराक में है। उसका नाम है-- श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. 987654321 कैटेगरी- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा।

स्वामी इंवैंटीलेटर पर हैं। उनकी इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों से विद्युतीय माइक्रो चाक्षुष नौन तार कंडक्टर्स जुड़े हैं। केवल नर्सें और डॉक्टर वर्चुअल स्क्रीन पर मरीज़ का जीवन-ग्राफ देख सकते हैं। ये है सन 2057, फरवरी का महीना, स्वामी सत्यानंद सरस्वती इंवैंटीलेटर पर हो रहे हैं पसीना-पसीना।

अस्पताल के बाहर उनके शिष्यों की फौज थी। सब दुःखी थे, केवल एक की ही मौज थी। वह था उनका शिष्य नकारू। नकारू यह सोच-सोच कर मगन था कि वी.आई.पी. स्वामी मरने वाले हैं। वही उनके साइबर डेटा और साइबर पीठ का उत्तराधिकारी होगा। पिछले लगभग एक महीने से वह स्वामी की मृत्यु की कामना कर रहा था। दस दिन से तो उसने उन्हें उम्रवर्धिनी औषधि व्यग्रआग्रा देना भी बंद कर दिया था। स्वामी को इस तथ्य की भनक नहीं लग पाई। किंतु सिस्टम के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ करने के कारण नकारू की स्नायु-दिमागी ड्राइव में कोई वायरस लग गया, जो ‘स’ ध्वनि को ‘ह’ में बदल देता था। अगर वह दूसरों के सामने स्वामी का नाम लेने का प्रयास करता था तो मुंह से निकलता था- ‘ह्वामी हत्यानंद हहह्वती’। सकारू जो कि स्वामी का दूसरा शिष्य था बिगड़ गया- ‘लज्जा नहीं आती, श्री श्री श्री का नाम ऐसे लिया जाता है’?

नकारू लज्जित तो नहीं हुआ, परेशान सा होकर कहने लगा- ‘हकारू! हायद कोई वायरह लग गया है, ह्री ह्री ह्री का जैहे ही नाम लेता हूं हत्यानंद हहह्वती ही निकलता है’। सकारू समझ गया। उसे अपना नाम ‘हकारू’ भी अच्छा लग रहा था, क्योंकि अन्दर ही अन्दर वह जानता था कि स्वामी की मृत्यु के बाद सारे हक तो उसी को मिलने हैं। जिसे हक मिले वो हकारू। वह नकारू की तरह नकारात्मक नहीं था। उसने कभी स्वामी की मृत्यु की कामना नहीं की। वह हृदय से साइबर-योगा-पीठ के हित की कामना करता था। माना कि चिकित्सा विज्ञान ने मनुष्य की आयु बढ़ा दी है पर अमर तो नहीं किया। वह सचमुच चाहता था कि श्री श्री श्री अभी धरती से विदा न लें। एजीरियल साइबर योगा विज्ञान के क्षेत्र में उनका भारी योगदान था। उन्होंने ब्रिटेन, अमरीका, यूरोप, जापान और अफ्रीका के बेरोज़गार नौजवानों को आउटसोर्सिंग में जॉब देकर मनुष्य की उम्र पांच सौ साल करने वाले प्रोजैक्ट पर काफी श्रम किया था। भारत के नौजवानों को ज़्यादा धन देना पड़ता था। विकास-अवरुद्ध पश्चिमी देशों के नौजवान सस्ते पड़ते थे। उम्र-वर्धन तकनीक पर शोध करते-करते वे स्वयं पर ही कोई ग़लत प्रयोग कर बैठे। सुषुम्नोत्तर तरंग-प्रवाह में विकारी बाधा आ गई। श्वास लगभग चली गई, मूर्छित हो गए। नकारू और सकारू ने उन्हें साइबरोलो अस्पताल के इंवेंटीलेटर के हवाले कर दिया। अब अंतिम सांसें गिन रहे हैं।

श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. 987654321 कैटेगरी-- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा इंवैंटीलेटर पर अर्धमूर्छित अवस्था में लेटे-लेटे अंतिम सांसें नहीं गिन रहे थे, वे गिन रहे थे उन महिलाओं की संख्या जो उनके संसर्ग में आईं। वे चाहते थे उनके दिमाग का स्त्री-डाटा करप्ट हो जाए। वे नहीं चाहते थे कि मरने के बाद उनके दिमाग की हार्ड-ड्राइव उनके मठ में जाए और शिष्य हतप्रभ रह जाएं। जीवन भर भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले अविवाहित सत्यानंद ने सत्य में किस-किस प्रकार के आनंद लिए थे, सब पता चल जाएगा उनके चेलों और चपाटों को।

तपस्विनी मेधा से उनके क्या रिश्ते थे। अमरीका से आई साध्वी जैनेथ, कज़ाकिस्तान की क्युदीला, जापान की फुईकुई... और... । अब उनके चेलों को यह भी पता लग जाएगा कि मठ के एक अरब हज़ार रुपए उन्होंने किस प्रकार होनोलुलू के हिडन-बैंक में जमा कराए। अरे! वे कोड नम्बर अब कैसे मिटाएं। और ये जो व्यर्थ का उत्तराधिकारी बना हुआ है नकारू, इसको सब कोड पता चल जाएंगे। किसी तरह मेरे दिमाग की हार्ड ड्राइव खराब होनी चाहिए, करप्ट होनी चाहिए। हाय! इंवैंटीलेटर से कब हटाया जाएगा मुझे। कम्बख़्त इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी। साइबर स्पेस की डैमोक्रेसी मेरी ऐसी की तैसी करा देगी।

कमरे में डॉक्टर आया। उसके हाथ में साइबर मोबाइल था। स्क्रीन के उपर हाथ फिरा कर वो उंगलियां उपर नीचे करता था, विंडो बदल जाती थी। कहने लगा— ‘स्वामी! आई थिंक आप मुझे सुन सकते हैं। आई कैन रीड यॉर माइंड, माइक्रो फैमिनन रेज़ बता रही हैं कि आप महिलाओं के बारे में सोच रहे हैं। ये सन दो हज़ार सत्तावन है, भारतीय मुक्ति संग्राम को दो सौ साल हो चुके हैं। इस साल भी साइबर स्पेस में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक क्रांतिकारी काम किया है। धरती के सारे मनुष्यों का जन्म-मरण का डेटा बेस और डेटा विश्लेषण तो पिछले साल ही पूरा हो गया था, आज डी.एन.ए एंट्रीज़ भी पूरी हो गई हैं। क्या आपको मालूम है कि इस धरती पर आपकी चार संतानें हैं....’।

इस से पहले कि डॉक्टर आगे कुछ कहता, स्वामी के शरीर में ज़ोर का कम्पन हुआ। इंवैटीलेटर की सुषुम्ना पाइप से धुआं निकलने लगा। स्वामी के दाँत बजने लगे। डॉक्टर खुश हो गया। ये शॉक ट्रीटमैंट नहीं अशोक ट्रीटमैंट था—‘पता नहीं आपको खुशी हुई या गम। मे बी कभी खुशी कभी गम। बट यू कांट इरेज़ दा फैक्ट। साइबर स्पेस में अब सब को पता चल जाएगा कि अनमैरिड स्वामी के उत्तराधिकार का मामला सुलझ गया है। स्वामी आपका सारा डेटा, पा जाएगा आपका बेटा और तीनों बेटियां। नकारू और सकारू बेकार लड़ रहे हैं।

इस आलेख में एक हज़ार एक सौ आठ शब्द पूरे हो चुके हैं। बोलो- ह्वामी हत्यानंद हहह्वती की जय!

द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...
http://www.chakradhar.com/

Monday, May 21, 2007

भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी-अशोक चक्रधर

जी दिल बल्लियों उछला और गमले के गुलाब की तरह खिला जब पाकिस्तान से मुशायरों की श्रृंखला में शिरकत करने का दावतनामा मिला। पाकिस्तान जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हवाई जहाज़ डबल-डैकर था। में था ऊपर की मंज़िल पर। मेरे एक ओर पद्मश्री बेकल उत्साही और दूसरी ओर शायर दीक्षित दनकौरी बैठे थे। नीचे की मंज़िल पर बाकी भारतीय शायर-हज़रात थे। दोपहर ढाई बजे उड़ना था लेकिन साढ़े तीन से पहले नहीं हिला।

हिलने से पहले हुई बिस्मिल्लाह। कुरान की आयत पढ़ी गई। मैंने भरपूर दुनिया घूमी पर हवाई जहाज़ में प्रार्थना होते हुए पहली बार सुनी। बेकल साहब ने बताया—‘ये सफ़र की दुआ है। इसमें कहा जा रहा है कि हम तेरे हवाले हैं, तू सबसे बड़ा है। तू हमारे गुनाहों को माफ करते हुए इस सफ़र को हमारे लिए आसान कर दे’।

तभी एक मधुर आवाज़ गूंजी— ‘सलाम वालेक़ुम ख़वातीनो हज़रात। इस परवाज़ पर हम ख़ुशामदीद कहते हैं। हमारी रवानगी में जो ताकीर हुई उसके लिए हम माज़रतख़्वाह हैं। ये ताकीर ऑपरेशनल वजूहात की बिना पर हुई। हम इंशाअल्लाह एक घंटा चालीस मिनट में कराची पहुंचेंगे। हमें उम्मीद है कि आपका सफ़र ख़ुशगवार ग़ुज़रेगा। ताकीर के लिए हम फिर से माज़रतख़्वाह हैं’।
बेकल जी के बिना बताए मैं समझ गया कि ताकीर माने देरी और माज़रतख़्वाही का मतलब है माफ़ी मांगना। मैं ऐन उस दिन जा रहा था जिस दिन अभि और ऐश एक होने वाले थे। मैं उनके जीवन के सफ़र की दुआएं करने लगा। शादी में जो ताकीर हुई उसके लिए माज़रतख़्वाही कौन करे। कुंडली में बैठे मंगल को माज़रतख़्वाही करनी चाहिए। जिसने अभिषेक के अब्बा को मन्दिरों में नंगे पाँव दौड़ा दिया।
जब हवाई जहाज़ कराची के हवाई-अड्डे पर उतरा तो बताया गया कि बैरूनी दर्जा हरारत बत्तीस डिग्री है और ताकीर के लिए हम माज़रत चाहते हैं। ‘दर्जा हरारत’ ज़ाहिर है तापमान के लिए कहा गया जिसे बत्तीस बताया गया। अंदरूनी ‘अंदर का’ होता है, बैरूनी ‘बाहर का’ होगा। हम प्राय: कहते है कि आज बदन में हरारत है, पर ये कभी नहीं सोचा कि हरारत का मतलब तापमान है। शब्दों के प्रयोग से हम उनके अर्थ बिना बताए सीख पाते हैं। बैरूनी, ताकीर, माज़रत और हरारत, इन चार शब्दों में जो शब्द दस दिन तक सर्वाधिक सुना वह था— ‘माज़रत’।

हवाई अड्डे पर जो लोग लेने आए वे असंख्य कारणों से माज़रतख़्वाह थे। जिस बस में बैठे, उसका ड्राइवर माज़रतख़्वाह था कि जब तक सब नहीं बैठ जाएंगे वह ए.सी. नहीं चलाएगा। शायर आठ, चाहने वाले साठ। चढ़ने ही न दें बस में। हमें पहचानने वाले भी वहां मिल गए। जिन्होंने टीवी पर ‘वाह-वाह’ देखा होगा। कोई ऑटोग्राफ के चक्कर में, कोई फोटोग्राफ के चक्कर में। मैंने उनसे माज़रत चाहते हुए बस में सीट पर कब्ज़ा किया। ए.सी. बैठा तो ए.सी. चला।

माज़रत शब्द अगर बहुत पहले आ गया होता तो महाभारत नहीं होती। क्षमा ही तो नहीं सीखी लोगों ने। कौरव-पाण्डव एक-दूसरे को क्षमा कर देते तो सुईं की नोक के बराबर भी लड़ाई नहीं होती। वेदव्यास ने वनपर्व में लिखा है-- ‘क्षमा धर्मा: क्षमा यज्ञ क्षमा वेदा क्षमा श्रुतम्’, क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है तथा क्षमा शास्त्र है। पर किसने जाना और किसने माना। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान भी कश्मीर के बारे में महाभारत पर आमादा रहते हैं। अरे! माज़रत पर आमादा रहो, महाभारत में क्या रखा है रे भइया।

पाकिस्तान के हर मुशायरे में हम यही मुहब्बत का पैगाम देते रहे। मैं ठहरा वहां के मुशायरों में जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हिन्दी कविता का अलग शिल्प, अलग विधान, अलग तरीका। उन्हें तो आदत थी दो-दो पंक्तियों के शेर सुनने की, अपनी कविता होती थी कथात्मक और लंबी। वहां के श्रोताओं के लिए नया तजुर्बा। पहले मुशायरे के बाद वहां के अदब-नवाज़ आयोजक जनाब अफ़ज़ाल सिद्दिक़ी ने कहा— ‘अशोक साहब, पता ही नहीं चलता कि कब तक आपकी गुफ्तगू चलती है और कहां आपकी शायरी शुरू हो जाती है। पर सामईन (श्रोताओं) ने पसन्द किया आपको। कुछ तो बेहूदे हर जगह होते हैं, उन्हें ग़ज़ल के अलावा कुछ समझ नहीं आता’। मैंने कहा- ‘चलिए कोशिश करूंगा। ग़ज़ल का शायर तो मैं नहीं हूं पर यदा-कदा कह लेता हूं’।

मुशायरे में लोग उछल-उछल कर दाद देते थे। अगर उत्साह में आकर श्रोता ताली बजा बैठें तो निज़ामत करने वाला यानी संचालक टोक देता था— ‘मैं बड़ी माज़रत के साथ आपसे ग़ुज़ारिश करना चाहता हूं कि तालियां बजाना अदब-नवाज़ी के एकदम ख़िलाफ है। मेहरबानी करके तालियां न बजाइए, दाद दीजिए, वाह-वाह कीजिए’।

मैं हैरान! अरे अपने यहां तो कविगण तालियों की भीख मांगते हैं। तालियों के लिए कटोरा-सा लेकर खड़े हो जाते हैं। कोई माज़रत-फाज़रत नहीं करते हैं। धड़ल्ले से बेशर्म होकर कहते हैं कि तालियां बजाइए। न बजाओ तो श्राप देने लगते हैं-- तालियां नहीं बजाईं तो आपको देश-द्रोही माना जाएगा, तालियां नहीं बजाईं तो आप अगले जन्म में घर-घर जाकर तालियां बजाएंगे, तालियां बजाइए मेरे बाल-बच्चे आपको दुआ देंगे। मैं अपने गीत की यही लाइन तब तक दोहराता रहूंगा या रहूंगी जब तक आप मिलकर तालियां नहीं बजाएंगे। ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं कि क्या कहिए! और वहां अदब-नवाज़ सामईन माज़रतख़्वाह हैं।

अफ़ज़ाल साहब की नसीहत पर मैंने अपनी दरिन्दा-परिन्दा वाली ग़ज़ल सुनाई। मौक़े की नज़ाकत देखते हुए उसका एक शेर बदल भी दिया—

‘भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी,
ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’।

इस पर तालियां न रुकीं और संचालक महोदय भी न रोक पाए। तालियां इतनी पुर-बुलंद, इतनी सामूहिक और इतनी स्वत:स्फूर्त थीं कि अदब-नवाज़ी की रवायात ध्वस्त हो गईं। मैंने कोई शायरी नहीं की थी, बल्कि एक ऐसी इच्छा को अभिव्यक्ति दी थी जो पाकिस्तान की जनता शिद्दत के साथ महसूस कर रही थी। ‘ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’, ये बात मनमोहन सिंह और मुशर्रफ नहीं कह सकते और न सुन सकते। लेकिन एक शायर कह सकता है, एक कवि कह सकता है। उसके लिए धरती पर खीचीं गई सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं। वह तो दिलों के बीच की सीमाओं और दीवारों को तोड़ डालता है। धरती पर भौगोलिक सीमाएं भले ही बनाए रखो पर दिलों में खिंची सारी सीमा-रेखाओं को मिटा दो।

दस दिन खूब अच्छे बीते। सुबह कहीं इस्तकबालिया, दिन में कहीं लंच, शाम को कहीं चाय, रात में कहीं शानदार डिनर और उसके बाद मुशायरा, जिसमें पचास और सत्तर के बीच में शायर हज़रात। संचालक को हर बार दोहराना पड़े– ‘मैं माज़रत के साथ कहता हूं कि इख़्तेसारी से काम ले’। इख़्तेसारी बोले तो संक्षेप में बोलें। एक जगह तो ऐलान कर दिया गया कि अपने पसंदीदा पाँच शेर सुनाएं सिर्फ़। फ़ज़र की अज़ान से पहले मुशायरा ख़त्म करना है। मैंने तो एक जगह कह भी दिया—

एक शायर के लिए भारी है,
इख़्तेसारी तो एक आरी है।
यहां आ के मुझे महसूस हुआ
कम सुनाने में समझदारी है।

बैरूनी, ताकीर, माज़रत, हरारत, इख़्तेसारी जैसे शब्दों के साथ पाकिस्तानियों की मुहब्बतें लेकर लौटे। मुम्बई के हवाई अड्डे पर वही उद्घोषणाएं— ‘इंशाअल्लाह, हम मुम्बई पहुंच गए हैं। बैरूनी दर्जा हरारत चौंतीस डिग्री है’। और चूंकि कोई ताकीर नहीं हुई थी सो माज़रत भी नहीं की गई। मैं सोच रहा था कि अगर कोई भी आसानी से माज़रत कर ले तो बैरूनी तो क्या, अन्दरूनी तापमान ठीक हो जाता है। घर आए तो अमित जी के यहां से आई अभि-ऐश की शादी की मिठाई खाई। पड़ोस में बांटी, जिनको नहीं मिल पाई उनसे माज़रत कर ली।

द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...
http://www.chakradhar.com/

Friday, May 11, 2007

कृत्या - इन्टरनेशनल पोयट्री फेस्टिवल-जुलाई-2007

Kritya 2007 takes place inThiruvanathapuram, Kerala
From 21.07.2007 to 23.07.2007.
Poets of various languages from all over India and
various countries abroad will be attending.



जानकारी के लिये यहाँ पढेँ...
http://kritya.in/0212/En/Festival%20of%20poetry-3.html

Tuesday, May 01, 2007

एचिंग टेक्नीक बाइ - क्लादिया ह्यूफ्नर



मेरी उनसे मुलाकात http://www.artwanted.com/ के द्वारा हुई..
जब उनके कमेंट्स मैने अपनी एक पेंटिंग पर देखे...
http://www.artwanted.com/imageview.cfm?id=473554

"10-Mar-07 03:33 AM
Claudia Huefner Bahut manohar hai!! Very interesting, very expressive! "

एक क्लिक से पता चला कि वह एक बडी अच्छी चित्रकार है , जिनका एचिंग विधा पर अच्छा कमांड है.. उनके चित्र देखे..तो बडा आश्चर्य हुआ.. एक जर्मन का हिन्दी प्रेम..आधे से ज्यादा चित्र हिन्दुस्तानी थे..अमिताभ बच्चन की वह जबरजस्त फैन है.. ई-मेल पर उनसे काफी बाते हुई..वह पिछ्ले 3 महीने से जर्मनी मे हिन्दी सीखती है..

हिन्दुस्तानी कल्चर और आर्ट मे काफी दिल्चस्पी है..उनकी हिन्दी और अंग्रेजी मिश्रित ई-मेल पढ कर बडा आनन्द आता है..लगता ही नही की वह जर्मन है..हाँलाकि लिख्नने मे अभी रोमन लिपि का इस्तेमाल करती है..पर जल्द ही यूनीकोड सीख जायेगी...

अभी हाल मे ही उन्होने हमारी शादी पर एक सुन्दर सा उपहार भेजा ..संगीता का एक एचिंग ...
यहाँ देखिये...
एक तस्वीर को देखकर चीजो को बेहद खूबसूरती से निकाला है.. जिसे शब्दो मे कहना जरूरी नही लगता है..देखकर ही पता लग जाता है. ..
एचिंग टेक्नीक है क्या::
एचिंग कला की एक ऐसी विधा है जो एक मेट्ल प्लेट (engraved plate) पर बरीक लाइन के द्वारा चित्र को carve करके की जाती है और फिर उसका प्रिंट लिया जाता है..
क्लादिया एचिंग कैसे करती है...वह यहाँ बता रही हैँ..
Etching technique:
Engraving technique, called etching. The attached pictures shows you how the plane look like, where I engraved a portrait with a special etching steel-needle - in mirror-inverted way. This plane is rubbed in with special printingcolors (ink): The plate is inked all over with a gauze (Marc Doutherd is ready for printing), and then the ink wiped off the surface, leaving only the ink in the etching lines, I do this it with my palm to get a soft surface (Marc Doutherd is now ready for one printing, next picture: plate of Amitabh Bachhan ji-without color , only engraved, some tools and paper.)

Then plate is put through a high-pressure printing-press together with a wettish sheet of special paper - in a limited number of printings, for each print all color preparations above must be repeated. You can see below: my printing press, the plate and one print of ArtWanted-friend Shashvat Doorwar. I make more than one print, in different colors, as you also can see in the example of Dr. Manmohan Singh ji.

Some little helps with paintbrush and coffee (!) finalizes the best of all prints to the gift, I will make.


उनके अन्य चित्रो भी को यहाँ देख सकते है..