Wednesday, April 07, 2010

चित्रकार ए. रामचन्द्रन की कला : आधुनिकतावाद को खारिज करती एक सौन्दर्य दृष्टि

क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेवरूपं रमणीयतायाः ! 
-माघ

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मचन्द्रन के चित्रों से गुज़रना भारतीय वाङ् मय से गुज़रने जैसा है। रामचन्द्रन के चित्रों को देखना भारतीयता का सिंहावलोकन करना है। रामचन्द्रन के चित्रों का अवलोकन भारतीय समाज के विकास का अवलोकन है। आप भारतीय सौन्दर्य दृष्टि से भी परिचित होते हैं। यानी समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ रामचन्द्रन की कला भी विकसित होती नज़र आती है। बदलाव का स्पन्दन रामचन्द्रन के कैनवास, प्रिन्ट और मूर्तिकला पर महसूस किया जा सकता है।


समकालीन भारतीय कला जिस तरह के पाश्चात्य कला की पिछलग्गू रही है और जिस तरह से तथाकथित एक अत्यन्त छोटे से, औपनिवेशक भारत के अवशेष, अंग्रेजों के आज भी मानसिक रूप से गुलाम अंग्रेज़ी बोलनेवाले कला समीक्षकों, कला दीर्घा के मालिकों ने भारतीय कला के घिनौने व बकवास परिदृश्य को भारतीय कला के रूप में दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है उस निरर्थक आधुनिकतावाद को खारिज करती सौन्दर्य दृष्टि है, रामचन्द्रन की कला। रामचन्द्रन की कलात्मक परिपक्वता के तार्किक कारण हैं, रामचन्द्रन की पारिवारिक और उनकी आकस्मिक पृष्ठभूमि।

 केरल के एक सुदूर कस्बे अट्टिगन में 1935 में जन्में रामचन्द्रन ने किशोरावस्था में शास्त्रीय संगीत की दस वर्षों तक औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। बचपन में कृष्णस्वामी मन्दिर के भित्तिचित्रों ने इनके मानस पर गहरा असर किया। बाद में आपने मलयालम साहित्य में केरल विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। उसके बाद साहित्यिक और शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय रहे। तिरूवनन्तपुरम आकाशवाणी के लिए गाया भी। केरल विश्वविद्यालय के एक स्कॉलरशिप पर कला भवन शान्तिनिकेतन में नामांकन कराया और फाइन आर्ट की यह पढ़ाई 1961 में समाप्त हुई। यहाँ उन्होंने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया और वह था, कला भवन के लिए मातनचेरी महल के कुमारसम्भव म्यूरल की कॉपी करना। इसके साथ इन्होंने केरल की सुदूर यात्राएँ की तथा वहाँ के म्यूरल पेंटिग्स का सर्वे व डाक्यूमेंटेशन का काम किया। इस अध्ययन का प्रभाव रामचन्द्रन की समग्र कला पर दीखता है। साहित्य और संगीत के अध्ययन ने उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान की। मलयाली साहित्य के अध्ययन ने उन्हें तार्किक बनाया। इनके देखने, अवशोषण और रचनात्मक उद्गार में औरों से भिन्न दृष्टि इसी कारण बनी।



ला भवन शान्तिनिकेतन इस दृष्टि में महत्त्वपूर्ण रहा कि उनकी कला दृष्टि को बनाने में नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज जैसे कला आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकिंकर बैज की वजह से इनकी दिलचस्पी सन्थालों के प्रति, आदिवासियों के प्रति बढ़ीं। उन्होंने रामचन्द्रन को वह दृष्टि दी जो देशी सौन्दर्य के अवलोकन के लिए ज़रूरी थी। आदिवासियों में सौन्दर्य का मतलब था विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य। रामचन्द्रन ने न सिर्फ़ देखा बल्कि उसकी नित नवीन व्यवस्था अपने चित्रों में करते रहे। चाहे वे झील हो या राजस्थान के सुदूर गाँवों के ग्रामीण। समकालीन भारतीय कला में भारतीय तत्वों का निषेध है। चाहे सुबोध गुप्ता हों या शिल्पा गुप्ता, जीतीश कलात हों या रियाज कोमू या कृष्णाचारी बोस हो सभी पाश्चात्य सौन्दर्यमुखी चित्रकार हैं। इनके यहाँ भारतीयता के तत्व नहीं के बराबर हैं। अगर कभी-कभार परिलक्षित होते हैं तो वे अवचेतन में आकस्मिक रूप से ही आये हुए होते हैं। खैर, शान्तिनिकेतन ने रामचन्द्रन की कला दृष्टि को परिपक्व होने में काफ़ी मदद की।

रामचन्द्रन के विगत लगभग चार दशकों की कला यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए तो पाएंगे कि इनकी कला में सतत विकास का एक ग्राफ़ दीखता है। सतत विकास के कारण यह सदैव परिवर्तनगामी रहा है। साठ के दशक में यानी शान्तिनिकेतन छोड़ने और जामिया मिलिया इस्लामिया में आने के बाद इन्होंने अपने को विशुद्धतावादी बनाने का यत्न किया। एनाटॉमी, गेस्चर,  ह्यूमन बॉडी, मैन एंड सींटड फीगर, होमेज आदि चित्रों के जरिये उन्होंने एनाटॉमी, मानव शरीर के सौष्ठव, मांसपेशियाँ पर मास्टरी हासिल की। इसके साथ उस उम्र की स्वाभाविक जिज्ञासाओं के लिए कैनवास पर लगातार प्रयोग किये। रेखाओं, रंगों, आकृतियों, स्पेस सभी के साथ। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, मानवीय सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया। स्केवेंजर वूमन का पोट्रेट अभिजात्यवर्ग का सुधी दर्शक शायद एप्रीशिएट नहीं कर सकता था, पर रामचन्द्रन ने किया। उन्होंने ईसा को, गाँधी को चित्रित किया। लास्ट सपर को पुनःचित्रित किया। रामचन्द्रन के इस समय के अधिकतर चित्र हिंसा के विरुद्ध थे। एनकाउंटर, काली पूजा, मशीन, रिसरेक्शन ऐसे ही चित्र हैं। यह रामचन्द्रन का सामाजिक सरोकारों से, राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़ाव व उनके रचनात्मक/प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन था। ज्ञातव्य है कि उस दशक में भारत ने दो महत्त्वपूर्ण युद्ध भारत-चीन और भारत-पाक को झेला था। रामचन्द्रन की रचनात्मक अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में यह तात्कालिक परिवेश कहीं महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा था। इस समय रामचन्द्रन ने कुछ प्रिंट मेकिंग (एंचिंग) भी किया। इन कृतियों में द लवर्स, लास्ट सपर, स्केवेंजर वूमन का पोट्रेट, क्रूसिफ़िकेशन, द क्राइस्ट महत्त्वपूर्ण हैं।

त्तर के दशक में रामचन्द्रन की कला थोड़ी आगे बढ़ती है। यादवों का अन्त, न्यूक्लिअर रागिनी, दे चेज़, ऑडीएंस, सीलिंग जैसे समसामयिक विषयों का प्रवेश होता है। शहरी जीवन की भागमभाग, आतंक, हिंसा उनके पंसदीदा विषय रहे। पर सत्तर के दशक के अन्तिम वर्षों में परिवर्तन आने लगता है। मिथकीय विषयों, नायकों-नायिकाओं का प्रवेश होता है। जो अस्सी के दशक में परिपक्व होता है।

गान्धारी, अभिसारिका नायिका, विरहिणी नायिका जैसी नायिका शृंखला के चित्र, मिनिएचर शृंखला, द फ्लाई व डाइंग बहादुशाह जफ़र, वास्को डी गामा, सीटेस वूमन, मदर टेरेसा जैसे चित्रों के जरिए रामचन्द्रन का क्रमिक शिफ्ट दीखता है। इसके जरिये रामचन्द्रन सत्यान्वेषी तरीकों का इस्तेमाल करके ऐतिहासिक विषयों को समकालीन बनाते हैं। पर मिथकीय चरित्रों का कैनवास पर उभरना जातीय स्मृति का रंगीन अंकन माना जाना चाहिए।

स्सी के दशक का उत्तरार्ध रामचन्द्रन का टेक ऑफ है। आंधी, ययाति, उषा, मध्याह्न, सन्ध्या, डांसिग वूमन, नीयर लोटस पौंड, ऑरेंज लोटस पौंड, लोटस पौंड के जरिये रामचन्द्रन भारतीय मिथ में प्रवेश कर जाते हैं। ये चित्र काल के लिए आघात की तरह हैं। अपनी चित्रभाषा दृश्यता, स्वप्नशीलता और उत्कृष्ट व उदात्त रंग योजना के कारण भारतीय कला दर्शकों को अभिभूत कर जाते हैं। ये मिथकीय आख्यान लोक जड़ों से गहरे जुड़े होने के कारण संवाद परक भी है।

ब्बे के दशक में रामचन्द्रन का सम्पूर्ण कला व्यक्तित्व निखर जाता है। अपनी ख़ास सांगीतिक चित्र शैली को रामचन्द्रन आविष्कृत करते हैं। इस चित्र शैली में भारतीय सौन्दर्य परम्परा, भारतीयता, भारतीय विचारधारा की गूँज, अनुगूँज जादुई ढंग से सुनाई पड़ती है। रामचन्द्रन ने ययाति, उर्वशी, गान्धारी, कुन्ती, कूर्मावतार, रामदेव, मानसरोवर, उषा, सन्ध्या सभी का पुनराविष्कार किया है। ये चरित्र संवाद परक हैं।

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मचन्द्रन की समूची कला यात्रा को देखे तो पाते हैं कि उनकी संवेदनशीलता लगातार विस्तार पाती रही है न्यूक्लियर रागिनी का 1975 में सृजन हुआ जिसका विस्तार हम जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र (2005) में पाते हैं। हिरोशिमा में न्यूक्लियर विस्फोट, बंगाल में नक्सलवादी हिंसा और पोखरन न्यूक्लियर विस्फोट के बाद न्यूक्लियर रागिनी का विकास हुआ। उक्त चित्र में एक रागिनी नायिका को एक आईना दिखाया जा रहा है। जिसमें उसके खूबसूरत चेहरे के बजाय चेहरे का कंकाल ही दीख रहा है। यह आण्विक युग की सच्चाई दिखाता है। इसकी जड़ें तलाशने रामचन्द्रन जा पहुँचते हैं कुरुक्षेत्र। जिसमें वे कुन्ती और गान्धारी के जरिये, चैपड़ के खेल में महाभारत के युद्ध की जड़ें तलाशने का प्रयास करते हैं।

मानसरोवर श्रंखला (1997), कमल सरोवर श्रंखला में कमल वाले तालाबों का अद्भुत चित्रण रामचन्द्रन ने किया है। ये दरअसल रामचन्द्रन के बचपन की स्मृतियाँ है। जिसने उन्हें सम्मोहित कर रखा है। उनके केरल के कस्बे अट्टिगल की स्मृतियाँ है। जिसका प्रसव मानसरोवर शृंखला में परिपक्व रूप में हुआ पाते हैं। जिस पर मिथकीय आवरण भी दिखता है। कमल का सरोवर में अलग-अलग काल में अलग रूप दीखता है। कृष्ण के बाँसुरी के साथ सरोवर में उड़ते कीटों का अद्भुत चित्रण हैं यहाँ। कीट के बहाने सरोवर और कमल की अद्भुत सौन्दर्यपरक व्याख्या का अन्यतम उदाहरण है यह।


प्रकृति से रामचन्द्रन का लगाव अनायास नहीं है। बंगाल और केरल की प्राकृतिक छटा का असर होना ही था। चाहे महुआ हो या कम्दब, पलाश हो या कंचन उसकी पत्तियाँ, उसके फल, उनसे लगे फूल और बेल बूटे सभी अपने बाह्य और अन्तरजगत की सुन्दरता के साथ कैनवास पर मौजूद होते हैं।

रामचन्द्रन का एक रूप और है, आदिवासी चरित्रों को मिथकीय चरित्रों में अभिव्यक्त करना। राजस्थान से रामचन्द्रन का गहरा जुड़ाव रहा है। हरेक यात्राओं में उन्होंने भीलों का, भील कन्याओं, मजदूरों का रेखांकन किया है। ‘हन्ना और उसकी बकरियाँ’ ऐसे चित्रों में प्रमुख है। हन्ना उन्हीं भील लड़कियों में एक थी जिनके लिए रामचन्द्रन स्नेह से मुक्त न हो पाने की असमर्थता जताते हैं। (रूपिका चावला एक निबन्ध में) ‘कूर्मावतार के साथ सविता’ बनेश्वर मेला के मार्ग पर ‘नागन्धा पर पुनर्जन्म, सुखा का व्यक्ति चित्र, रत्नी का व्यक्ति चित्र, कमला का व्यक्ति चित्र, लोगर का व्यक्ति चित्र, अहल्या पीले में, युवा दुल्हन के रूप में सोल्की, जमुना/अन्ना और अमलताश, एक नयनी, सुन्दरी का व्यक्ति चित्र ऐसे ही प्रमुख चित्र हैं।

भीलों और सन्थालों के चित्रण के साथ रामचन्द्रन के चित्रों में आम आदमी स्थापित होता है। भीलों की ओर ध्यान आकृष्ट करने में रामचन्द्रन के चित्रों की भूमिका अहम रही है यह आम आदमी सुबोध गुप्ता के आम आदमी से एकदम भिन्न है। सुबोध का आम आदमी जहाँ आभिजात्य वर्ग के बीच एक गुलाम हिन्दुस्तानी की तरह अभिव्यक्त होता है वहीं रामचन्द्रन का आम आदमी अपनी गरिमा का पुनस्र्थापन पाता हैं। एक कला समीक्षक ने सही लिखा है कि वे समकालीन कला में उपेक्षित और वंचित जनों की सुधियों के कलाकार हैं।


रामचन्द्रन के अधिकतर चित्र तैल माध्यम में सृजित हैं। इसके साथ इन्होंने जल रंग और मूर्तिशिल्प में भी कार्य किया है। जल रंगों में भी रामचन्द्रन का सौन्दर्यबोध पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त होता है। गीत गोविन्द पर आधारित मानसरोवर शृंखला (1997), अज्ञात की मिथकीय यात्रा (1996), इन्कारनेशन शृंखला (1995) कदम्ब का पेड़ और नन्दी सांढ (1995), नागलिंग का पेड़ (1995), बाकर्स एट लिलि पौंड (1995) नागदा में मत्स्य अवतार (1996) मत्स्य अवतार (1996) बनेश्वर मेला से सम्बन्धित चित्र (1998), रामदेव (1998) तूतीनामा शृंखला (1999) कमल का चुनना (2002) से लेकर ध्यान चित्र शृंखला (2007) तक रामचन्द्रन के जलरंगों का विस्तार है।


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त्रकार रामचन्द्रन की रचनात्मकता का विस्तार विगत वर्षों में मूर्तिशिल्प और इंस्टालेशन में भी हुआ है। गर्ल विथ वाटर लिलिज, इन ट्रांस, द गर्ल विथ प्लांट एंड इन्सेकट्स, ब्राइड ट्वायलेट (2004) जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र (2005), बहुरूपी (2006) इनके महत्त्वपूर्ण मूर्तिशिल्प हैं। जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र के बहाने महाभारत का उत्स ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं रामचन्द्रन, तो बहुरूपी तक आते-आते रामचन्द्रन की सम्पूर्ण कला दृष्टि एक उच्चतम शिखर तक पहुँच जाती है यानी ध्यानस्थ रामचन्द्रन, बकरी में तो कभी स्त्री के पैरों के नीचे, कभी आईना दिखाते तो कभी मुखलिंग के रूप में सभी जगह मौजूद होते हैं, एक समवेत दृष्टि के साथ।

वर्तमान समकालीन कला में पश्चिम से आक्रान्त भारतीय कलाकारों के मध्य रामचन्द्रन एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह दीखते हैं जो अपने सृजन में कलात्मक व प्रगतिशील मानवीय मूल्यों के कारण सबसे अलग हैं।

लेखक : विनय कुमार
("क" कला सम्पदा और वैचारिकी", जुलाई-अक्टूबर-२००९ अंक से साभार)


Monday, April 05, 2010

इस अगम परिसर में - सम्पादकीय: विजय शंकर

पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादेमी ने सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन, नागपुर में आयोजित किया था। यह दूसरा आयोजन था। पहला उन्होंने मुम्बई में किया था। मैंने भी उसमें शिरकत  की थी। मुझे बहुत खुशी हुई। साहित्य अकादेमी, दिल्ली को छोड़कर शायद ही किसी राज्य की अकादेमी ने इस तरह की पहल की हो। महाराष्ट्र की हिन्दी साहित्य अकादेमी ने यह जिम्मेदारी ली है, यह एक सुखद और अपेक्षित क़दम था। महानगरीय सोच से ही यह उम्मीद की जा सकती है। लेकिन खुश होने की कोई ख़ास वजह दिखायी नहीं दे रही है। इस सम्मेलन को लेकर कई प्रश्न  ज़हन में उभरे। आप सब की नज़र कर रहा हूँ।

1: अन्य भाषाओँ के साहित्य से ‘सम्मेलन’ के कर्ता-धर्ताओं का कितना परिचय है? (साहित्य को मैं व्यापक अर्थ में ले रहा हूँ)।
2: अन्य भाषाओँ की लिपि को हम क्या चिह्नित कर पाएँगे?
3: आधुनिकता के मुद्दे पर अन्य भाषाओँ में विचार क्या यह एक बड़ा मुद्दा नहीं है?
4: अन्य भाषाओँ से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओँ में अनुवाद एक आत्यन्तिक ज़रूरत है इसे कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया।
5: भाषा वैज्ञानिकों की इसमें कोई भूमिका नहीं थी।
6: अपने देश काल से जुड़े ज्वलंत प्रशनो पर साहित्यिकों की भागीदारी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। जैसे जल, पर्यावरण, शिक्षा,  स्वास्थ्य और बचपन।
7: युवाओं की अनुपस्थिति-भाषा को लेकर उनकी सोच और साहित्य से उनका लगाव?
8: भावुकता से अलग भाषा नीति पर गम्भीर विचार-विमर्श?
9: सम्पर्क लिपि की अहमियत, उसकी आवश्यकता, उस दिशा में पहल।
जिस घर में तुलसी का पौधा है उस घर का कर्ता ही हमारी सांस्कृतिक विरासत का वारिस है, वही हमारी पंचायत में शामिल होने का हक़दार है, ठीक ऐसे ही चाहे किसी भाषा का 
साहित्यिक हो, पत्रकार हो, भाषा प्रेमी हो यदि वह हिन्दी में अपनी बात कर सकता है तब ही वह इस सम्मेलन में शरीक़ होने की काबिलियत रखता है। यह शायद मजबूरी हो सकती है लेकिन इससे बाहर निकलने का रास्ता हमने सोचा नहीं कोशिश करते तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था।
हम इस अगम परिसर में प्रवेश करना चाह रहे हैं। हमारी एक छोटी-सी पत्रिका है। सीमित संसाधन है, लेकिन कुछ करने का साहस है। मनुष्य होने के नाते सोचने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
एक एहसास है। दुःख है। एक सरल-सहज जीवन जीने-की जीते रहने की आकांक्षा है। एक अपनी भाषा है-उसमें जीने का सुख है। दूसरी भाषाओं से प्रेम है क्योंकि वह भी मनुष्य की भाषा है।
एक बड़ी लड़ाई तो यही है कि झूठ के खि़लाफ़ लड़ा जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि जब तक इसके खि़लाफ़ लड़ने को हम तैयार होते है, वह सच में बदल जाता है। ऐसे झूठ और ऐसे सच से ही दुनिया चल रही है। इसीलिए महानुभावों ने सत्य की बात की थी। सत्य खाली समय का उद्यम नहीं है। वह आपसे सातत्यता की आशा करता है-दूसरों की शर्तों पर नहीं। वह जीवन की अमौलिकता में बिखरा पड़ा है। जितना लौकिक है उतना ही अलौकिक भी है।
लेखक अपनी भाषा में झूठ नहीं लिखते। अपनी भाषा की गहरी पकड़ और साहित्य के मानदण्डों पर खरा उतरना ही शायद उसकी कसौटी है। अपने देश-काल, जीवन-शैली, और स्वाभाविकता की प्रतीति ही शायद हमारे जीवन में बिखरे असत्य को अस्वीकार करने में मदद करेगी।
हम भारतीय भाषाओं के साहित्य को जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस बार हमने अन्य भाषाओं के काव्य और कविता को आधार बनाया है। कविता ही सबसे सरल सषक्त और सबसे जटिल माध्यम है इस प्रतीक्षारत मानस में प्रवेश पाने का। सबसे गहरी चोट भी कविता करती है-सबसे ज़्यादा आनन्द भी कविता ही प्रदान करती है।  मुझे लगता है शब्दों की महत्ता और उच्चारण की निष्छल संगति ही अन्य भाषाओं को निकट लाने में सबसे अहम् भूमिका निभा सकती है। इस पर नये सिरे से सोचा जाना चाहिए।
पहले हमने इसे कालबद्ध करने की सोची थी लेकिन कविता को काल से क्या लेना देना। हमने श्रेष्ठता ही आधार रखा। इस बार हम उड़िया कवि राधानाथ राय और पंजाबी कवि हरिभजन सिंह पर अपना अंक उपकेन्द्रित कर रहे हैं। उड़िया भाषा का एक खण्ड काव्य, पंजाबी भाषा की कुछ कविताएँ और एक-एक परिचयात्मक लेख।
हमने ऊपर एक प्रश्न उठाया है-लिपियों को चिह्नित करने को लेकर। हम उड़िया लिपि और गुरुमुखी कि एक बानगी आपके समक्ष रख रहे है-एक अनिवार्य परिचय की मानिन्द। लिखित रूप में, आँखों के सामने प्रस्तुत करने का मोह, एक अदृश्य-सी चाहना है।
आपके रचनात्मक सुझाव, इस कार्यक्रम के लिए आपकी भागीदारी, प्रस्तुत काव्य और कविताओं पर आपकी समीक्षा और सहृदय-का सा मन बनाने में आपका सहयोग सिर-आँखों पर।

 
- विजय शंकर
(लेखक 'क' कला सम्पदा एवं वैचारिकी, द्विमासिक कला पत्रिका के संपादक हैं)
http://www.kalasampada.com