Wednesday, April 17, 2013

कुछ पुरानी डायरी से...


17.04.13

हम बेहद मामूली किस्म के लोग हैं...आज भी हमें बहुत ज्यादा चीजों की समझ नहीं है... रोज जो भी कुछ नया देखने को मिलता है, लोगों से सुनते हैं, पढ़ते हैं उसी से सीखने की कोशिश करते हैं। 16 साल की उम्र में पहली बार शहर देखा, ट्रेन में बैठे, अकेले सफर किया जगमगाती रोशनी देखी, सड़के देखी, तरह-तरह की गाड़ियाँ., वगैरह। और वह पुल भी जिसमें से ट्रेन भरभराती-हरहराती निकलती थी। वहाँ के लोग, तौर-तरीके, रहन-सहन, भाषा- सब बड़ा तिलस्मी सा लगता था… वहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब में जीने का बड़ा मन करता था। हम पर सबसे पहले उस शहर की ज़बान चढ़ने लगी, जहाँ से हमारी असल भाषा का पतन शुरू हुआ।

हम उसे उतार फेंकने की जद्दोजहद में लग गए। हमें अपनी ज़बान में गंवारपन नजर आने लगा। शर्म आती थी बोलने में...कभी यह समझ नहीं आया कि वह भाषा हमें अपनी से ज्यादा क्यों प्रभावित करती... क्या खास था उसमे... जब कभी घर से आने पर लीडर रोड बस अड्डे से कीडगंज के लिए रिक्शा लेते तो यहाँ की भाषा में बोलने की कोशिश करते थे.. "कीडगंज चलबो, केतना पैसा लेबो... अबे...चूतिया-फूतिया समझे हो का... इतने में चलबा... हमहू इहाँ के ही हैं...." वगैरह-वगैरह... हमसे यहाँ ऐसा बोला गया था, जो हमारे पूर्व परचित (जिन्हे मठाधीस कहा जाता था) जो हमसे पहले इस शहर पढ़ाई के लिए आए थे, उन्होंने हमें उनकी ही भाषा में बात करने की नसीहत दी थी, ताकि वह हमें यहाँ का लोकल आदमी समझ अनाप-सनाप पैसे न ले। पर कभी यह समझ नहीं आया कि हम निरे बेकूफ थे।

कुछ गिने-चुने शहर थे...जहां, यहाँ रहते, बाद में जाने का मौका मिला था। असल में हम जा ही नहीं सके कभी इलाहाबाद छोड़कर। हाँ! यह जरूर पता था कि एक-न-एक दिन तो यह छूटेगा ही। फिर वह दिन भी आया, एक और शहर का इजाफा हो गया, हम शहर-ए-दिल्ली आ गए... जहाँ पिछले 13 बरस से अपने वजूद के लिए जद्दोजहदकर रहे हैं। हमारी भाषा यहाँ भी आकर बदल गई और पुरानी भाषा से कोफ्त होने लगी...यहाँ के लोग हिकारत की नजर से देखते थे। कहाँ से आए हो भैयये? क्या अपनाएं क्या त्यागे....

.... हम थक चुके हैं इस बदलाव से...पर अब हमारे कदम इस पर काबू पा रहे हैं...अब हम अपनी असल भाषा की तरफ वापस लौट रहे हैं।