Friday, October 15, 2010

असमय की कथा

ह असमय की कथा है। तब मनुष्य नहीं थे। न उसका सोच था, न समय, न उसका अंह था न उसका स्वार्थ। किसी महासंग्राम की बेला में ईश्वर ने सोचा होगा एक ऐसे जीव की रचना करें जो न सुर हो न असुर। इन दोनों के बीच का प्राणीकृ जो अपने सोच से, आचरण से, अपनी इच्छा से और आसक्ति से चाहे तो सुर बन सकता है या फिर असुर। उसने मनुष्य बनाया। ऐसे विचारवान मनुष्य को हमेशा मनुष्य बने रहने का सबब ढूँढ़ते रहना होगा।


एक मिथकीय सन्दर्भ है-समुद्र मन्थन। समुद्र मन्थन में सबसे पहले विष निकला, जिसे शिव ने अपने कंठ में धारण किया, इसी से उन्हें नीलकंठ कहा जाने लगा। फिर कामधेनु का आर्विभाव हुआ। कामधेनु न सुरों के साथ रहना चाहती थी न असुरों के साथ। उसे मनुष्यों के बीच रहना था। स्वेच्छा से उसने मुनि वशिष्ठ के पास जाना स्वीकार किया। वशिष्ठ मनुष्य थे, ऋषि थे।

बाद में मनुष्य ने जो सोचा वह आपके सामने है। ‘सुसज्जित गाय’ का रूपक लेकर चित्रकार सिद्धार्थ हमें इसकी परिक्रमा करा रहे हैं , उस गाय की जिसकी हमने पूजा की है, जिसे हम कामधेनु कहते थे, जिससे मिथकीय चरित्रों का अनन्य अनुबन्ध है, जिसे महाभारत में ‘बहुला’ कहा गया, जिसके लिए लड़ाइयाँ हुई, जिसका सभी तरह से उपयोग/उपभोग हम इन दिनों कर रहे हैं।

यह मिथकों को केन्द्र में रखकर ही सम्भव था। पुराकथाओं और वास्तविकता को एक साथ रखने में ही इसकी सम्भावना थी। इस कला प्रदर्शनी में गाय यानी एक निरीह प्राणी की भौतिक उपस्थिति से ही हम परम्परा के छद्म को रेखाओं में, आकृतियों में, प्राकृतिक रंगों में, कथाओं के माध्यम से विवस्त्र और निर्वस्त्र देख रहे हैं।

गाय तो अब भी वैसी ही हैकृअपनी संरचना में, स्वभाव में, अपनी दैनन्दिनी में, अपने दैविक रूप मेंकृहम ही बदल गये हैं। मनुष्य के इस तरह बदलने को प्रश्नांकित करती इस कला प्रदर्शनी में आपका स्वागत है।

एक और नज़रिये से हम चित्रकार सिद्धार्थ की कलाकृतियों को देख रहे हैं। शास्त्रीयता की कसौटी पर परखना चाह रहे हैं। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर पंडित ने ‘चित्रकला’ (आलेख्य) के छह अंग बताये हैं।

रूपभेदाः प्रमाणनि भावलावण्ययोजनम्।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्र षंडगकम।।

जैसा मैं समझ रहा हूँ, सिद्धार्थ यहाँ भी खरे उतरे हैं।

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने षंडग की व्याख्या की है। हम अपने पाठकों के लिए, कला मर्मज्ञों के लिए, तथाकथित कलाकारों के लिए इस व्याख्या को पुनःप्रस्तुत कर रहे हैं-एक नयी शुरुआत के लिए।

शुभकामनाएँ।

- विजय शंकर
(लेखक 'क' कला सम्पदा एवं वैचारिकी, द्विमासिक कला पत्रिका के संपादक हैं)
http://www.kalasampada.com 

Thursday, June 03, 2010

उन पांच मिनटों ने बदली मेरी ज़िन्दगी


 A german writer and artist was fascinated by a bollywood film to such extent that she learned language and translated a literary book to German language and got it published in Germany.



ਇੱਕ ਜਰਮਨ ਲੇਖਿਕਾ ਹਿੰਦੀ ਫਿਲਮ 'ਮੁਹੱਬਤੇਂ' ਵਿੱਚ ਅਮਿਤਾਭ ਬੱਚਨ ਤੋਂ ਇੰਨੀ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਹੋਈ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਹਿੰਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਸਿੱਖਕੇ ਅਮਿਤਾਭ ਬੱਚਨ ਦੇ ਪਿਤਾ ਸ਼੍ਰੀ ਹਰਿਵੰਸ਼ ਰਾਏ ਬੱਚਨ ਦੀ ਪੁਸਤਲ 'ਮਧੂਸ਼ਾਲਾ' ਦਾ ਜਰਮਨ ਵਿੱਚ ਅਨੁਵਾਦ ਕਰ ਕੇ ਪੁਸਤਕ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਵਾ ਦਿੱਤਾ.

55 वर्षीय क्लाउडिया ह्युफ़्नर (Claudia Hüfner) 
एक स्वतन्त्र लेखिका और कलाकार हैं।


एक जर्मन लेखिका ने केवल पांच मिनट के लिए अमिताभ बच्चन को पहली बार फ़िल्म मोहब्बतें में देखा, और उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने भारत के बारे में तमाम जानकारी जुटा डाली, हिन्दी सीखी, अमिताभ बच्चन से परिचय किया और उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन जी की पुस्तक 'मधुशाला' का जर्मन भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित करवाया। पढ़िए पूरी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी।

भारत के बारे में मुझे केवल इतना ही पता था कि इस नाम का कोई देश है। एक स्थानीय पत्र के लिए स्वतन्त्र लेखिका और कलाकार के तौर पर काम करने के कारण कभी कभी वहां होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बारे में जानना पड़ता था, पर उसके अलावा मेरी इस देश में कभी खास रुचि नहीं रही।

पर 2005 में यह सब बदलने लगा जब बॉलीवुड का तूफान जर्मनी में आने लगा। ARTE टीवी चैनल पर पहली बार हिन्दी फ़िल्म 'कभी खुशी कभी गम' जर्मन उपशीर्षकों के साथ दिखाई गई। हालांकि मुझे उपशीर्षकों के साथ फिल्म देखना अच्छा नहीं लगता क्योंकि पूरा ध्यान तो पढ़ने में ही चला जाता है, पर फिर भी जिज्ञासा के चलते मैं फिल्म देखने बैठ गई। फिल्म में रंग, संगीत, नाच गाना और यूरोप की तरह दिखने वाले दृश्य मुझे भाए, मुझे आश्चर्य भी हुआ पर बाद में पता चला कि यह स्कॉटलैण्ड की शूटिंग थी। कलाकार तो मेरे लिए बिल्कुल नए थे।

एक महीने बाद गर्मियों में एक अन्य चैनल को इस बाज़ार का आभास हुआ और उसने इसी फ़िल्म को जर्मन में डबिंग करके दोबारा प्रसारित किया। इस बार मैं पूरी फिल्म देखना चाहती थी। पर पता नहीं क्यों, वही तमाम चमक दमक के बावजूद मैं फिल्म को झेल नहीं पाई। मैं फिल्मों की कोई खास शौकीन भी नहीं हूं, जर्मन या हॉलीवुड फ़िल्मों की भी नहीं। पर उस चैनल पर तो जैसे भारतीय फिल्मों का भूत चढ़ गया हो। एक के बाद एक वह उस सपनों की फैक्ट्री की फिल्में दिखाने लगा, वो भी शाम के समय, जब सब लोग टीवी के सामने जुटे बैठे होते हैं। शायद यह ज़रूरी भी था, क्योंकि ये फ़िल्में बहुत लंबी होती थीं। ऊपर से ढेर सारे विज्ञापनों के साथ एक तिहाई समय और बढ़ जाता था। अगर ठीक समय पर न शुरू करते तो दर्शक को रात के तीन बजे ही सोने को मिलता। और आश्चर्यजनक बात, सभी फिल्में शाहरुख खान की होती थीं। शायद चैनल का मालिक शाहरुख का बहुत बड़ा प्रशंसक होगा। मैंने एक दो बार फिर से हिन्दी फिल्म देखने की कोशिश की, पर असफल। बॉलीवुड को झेलना मेरे बस की बात नहीं थी।

फिर शरद ऋतु आई, और अगली फिल्म थी मोहब्बतें। मेरा तो फिल्म न देखने का पक्का इरादा था, पर रात के ग्यारह बजे बोरियत के चलते रिमोट से चैनल पलट रही थी तो पांच मिनट के लिए आंखें इस फ़िल्म पर टिक गईं। इस बार भी खान साहब ही थे पर कहानी बेहतर थी। और वहां एक नया चेहरा भी था, क्या नाम था?? हां, अमिताभ बच्चन। आकर्षक। दो पुरुषों के बीच लड़ाई, पर बहुत दबी दबी, रोमांचक और सूक्षम।

अगले दिन फिल्म को दोहराया गया। इस बार मैंने यह चार घंटे की फिल्म रिकार्ड की। फिर से वही आकर्षण। मैंने नाम को गुगलाया। हां, भारत के एक महानायक। मैंने तो अभी उनके कई चेहरों में से केवल एक चेहरा देखा था। ये पांच मिनट मेरी ज़िन्दगी बदल देंगे, उस समय मुझे नहीं पता था, पर मैंने इस देश में रुचि लेनी शुरू कर दी। वहां की संस्कृति, धर्म, राजनीति। टीवी में भारत के बारे में कोई भी वृतचित्र नहीं छोड़ा। मैंने बच्चन को लिखा, पर कोई उत्तर नहीं। आखिर वे मेगास्टार हैं, हर कोई उनसे संपर्क साधना चाहता होगा। पर अफसोस था कि डबिंग के चलते मैं फिल्म में उनकी असली आवाज़ नहीं सुन पाई। इसलिए मैंने ज़िन्दगी की पहली हिन्दी फ़िल्म की डीवीडी खरीदी। जैसी उम्मीद थी, हिन्दी भाषा वैसी ही अद्भुत लगी। लगा जैसे मैं घर वापस आ गई हूं। मुझे शुरु से ही कलाकारों और कहानी की बजाय यह भाषा आकर्षित कर रही थी। तो क्या अब मुझे हिन्दी सीखनी होगी? मेरी उम्र में भी कई लोग नई भाषाएं सीखते हैं, हालांकि स्कूल में लैटिन, फ़्रेंच और अंग्रेज़ी सीखने के बाद मैंने किसी और भाषा में पांव न फंसाने की कसम खाई थी। मेरी दिलचस्पी गणित में है और मैंने कंप्यूटर विज्ञान में डिग्री पूरी की है। पर हिन्दी? चलो कोशिश करते हैं।

एक प्राथमिक पुस्तक लेकर मैंने तीन महीने तक देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा सीखी। उसके बाद मैं भारत और हिन्दी भाषियों के संपर्क में आना चाहती थी और बहुत कुछ जानना चाहती थी। पर यह कैसे सम्भव होता? स्कूल के बाद तो मेरा अंग्रेज़ी भाषा के साथ संपर्क भी टूट गया था। मैंने इंटरनेट में कई फोरमों पर कोई अच्छा संपर्क ढूंढने की बहुत कोशिश की। चार सप्ताह बाद मुम्बई से लगभग मेरी उम्र के श्याम चन्द्रगिरी के साथ परिचय हुआ। उनके साथ रोज़ चैट करते समय में कई शब्दकोष खोलकर बैठती थी। पहले पहले हम दार्शनिक या धार्मिक विषयों पर बात करते थे। पर धीरे धीरे यह मैत्री घनिष्ठ हो गई। इसी दौरान आर्ट-वांटेड (artwanted) नामक साइट द्वारा भी कई भारतीय कलाकारों से मेरा परिचय हुआ। कई लोगों को मेरे साइट में मेरे बनाए गए अमिताभ बच्चन के स्केच देख कर हैरानी हुई। फिर एक दिन एक  चित्रकार विजेंद्र एस विज   ने अमिताभ बच्चन जी द्वारा उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन के बारे में एक व्याख्यान के चित्र भेजे। इस तरह मेरा भारत के एक लोकप्रिय कवि से परिचय हुआ। मैं भी उस समय इतनी हिन्दी सीखने के बाद उसमें कुछ करना चाहती थी। फिर ख्याल आया कि क्यों न उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'मधुशाला' में से कुछ छन्दों का अनुवाद किया जाए? कुछ छन्द जब मैंने अपने भारतीय दोस्तों को सुनाए तो वे पूरी पुस्तक का अनुवाद करने पर ज़ोर देने लगे। लेकिन उसे यहां पढ़ेगा कौन। मैंने ग्यारह प्रकाशनों से इसके बारे में बात की। उनमें से सात प्रकाशनों को यह प्रोजेक्ट रोचक लगा। मुझे भी कविताओं का अनुवाद करने और उनके पीछे की सोच जानने में मज़ा आने लगा। पर इससे पहले कॉपीराइट के बारे में सोचना भी ज़रूरी था, ताकि जर्मनी में कोई और इसे प्रकाशित न कर सके। तो एक बार फिर ज़रूरत पड़ी अमिताभ बच्चन से संपर्क साधने की। लेकिन इस बार उनके सचिवालय द्वारा संपर्क करने की सोची। कई बार लिखा, कोई उत्तर नहीं। फिर एक ईमेल आई कि अमिताभ जी व्यस्त हैं पर समय मिलने पर उन्हें आप के बारे में बताया जाएगा। कई सप्ताह गुज़र गए। मेरे मित्र श्याम ने भी मुम्बई में उनके दफ़्तर जाकर मुद्दे को आगे बढ़ाने की कोशिश की। पर फिर वही उत्तर।

तीन महीने बाद हम दोनों बहुत तंग आ गए। एक दिन मैं और श्याम दोनों ही उनकी सेक्रेटरी रोज़ी सिंह से संपर्क कर रहे थे। इधर मैं ईमेल द्वारा उन्हें यह काम छोड़ने और कोई और कवि ढूंढने की धमकी दे रही थी और उधर श्याम उनके पास जाकर कह रहे थे कि यह जर्मनी को नीचा दिखाना है। डेढ घंटे बाद रोज़ी सिंह की ईमेल आई कि मेरा पत्र और मेरे द्वारा बनाया हुआ हरिवंशराय बच्चन जी का चित्र उनके बॉस को दे दिया गया है। एक दिन बाद अमिताभ जी की ईमेल आई कि वे मेरे काम का कुछ अंश देखना चाहते हैं। मैंने तुरन्त यह कर दिया। फिर एक महीने बाद उनकी दूसरी ईमेल आई जिसमें उन्होंने मुझे इसे प्रकाशित करने की अनुमति दी। साथ ही डाक द्वारा मुझे औपचारिक पत्र भेज दिए गए।

और यह मेरे काम की शुरूआत थी और अब मेरा अमिताभ बच्चन के साथ सचमुच परिचय हो गया था। कुछ दिन उनकी माता की मृत्यु हो गई। मैंने उन्हे शोक-पत्र और एक कविता लिखकर भेजी। तब से मेरे पास उनका निजि ईमेल पता भी है।

अब असली काम शुरू करने का समय आ गया था। पहले पहले यह का आसान लगता था पर धीरे धीरे मुश्किलें बढ़ती गईं। तमाम शब्दकोषों के बावजूद मुझे शब्दों के अभिप्राय समझ में नहीं आते थे, क्योंकि लेखक उन्हें बिल्कुल अलग सन्दर्भ में उपयोग करते थे। पहले शब्दों को समझने के लिए रोमन लिपि में बदलना, फिर उनके उत्तर ढूंढना, फिर उनका अनुवाद करना, फिर अनुवाद को ठीक तरह से कविता की तरह लिखना, वे 135 छन्द अब मुझे पहाड़ की तरह लगने लगे। अगर मैं कोई समस्या ईमेल द्वारा अपने परिचितों को भी लिखती, तो भी उत्तर आने में कई दिन लग जाते। मेरा धैर्य टूटने लगा। मैं सोचने लगी कि आखिर इतनी मेहनत का फायदा क्या है? क्या मैं यह सब किसी के कहने पर कर रही हूं? नहीं। पर जब भी मैं यह काम छोड़ने लगती, फिर से कुछ हो जाता और मैं पुन काम में लग जाती।

फिर आईआईटी खड़गपुर के शासवत दूर्वर नामक एक कैमिकल इंजनियरिंग के छात्र से मेरा परिचय हुआ। वह भी आर्ट वांटेड पर सक्रिय था। उसे इस पुस्तक का ज्ञान भी था और रुचि भी। एक बार वह कुछ समय की ट्रेंनिंग के लिए जर्मनी आया। हमने मिलकर इस पुस्तक पर बहुत काम किया। पुस्तक में जीवन के बारे में लिखी बातें मेरे अपने ख्यालों से बहुत मिलती जुलती थीं। आखिर वह समय आया जब अनुवाद पूरा हो गया। पर क्या यह अनुवाद कविता के हिसाब से बिल्कुल ठीक था? क्या पता। खुश्किस्मती से एक परिचित द्वारा एक जर्मन विश्वविद्यालय में कार्यरत 'वी श्रीनिवासन' नामक एक भारतीय भाषा-विज्ञानी के बारे में पता चला। उसने बहुत सी गल्तियों को ठीक किया और कई नए उपयुक्त शब्द बताए। इसी बीच कभी कभी अमिताभ बच्चन को ईमेल द्वारा अपने काम के बारे में बताती थी। उनके उत्तर संक्षेप में होते थे पर आते ज़रूर थे। मैंने उनको बताया कि मैं कोई अच्छा प्रकाशक ढूंढ रही हूं। मैंने उनसे पुस्तक की भूमिका लिखने का आग्रह किया। पहले पहल उन्होंने मना किया पर बाद में मान गए। इसी बीच जर्मनी के द्रौपदी प्रकाशन ने मेरी कृति को प्रकाशित का फैसला कर लिया। इस तरह मेरा भारत के साथ नाता जुड़ा।

साभार: 
क्लाउडिया ह्युफ़्नर // http://www.claudia-huefner.de/
बसेरा // http://basera.de ,  जर्मनी की एकमात्र हिन्दी पत्रिका 
http://rajneesh-mangla.de

Wednesday, April 07, 2010

चित्रकार ए. रामचन्द्रन की कला : आधुनिकतावाद को खारिज करती एक सौन्दर्य दृष्टि

क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेवरूपं रमणीयतायाः ! 
-माघ

रा
मचन्द्रन के चित्रों से गुज़रना भारतीय वाङ् मय से गुज़रने जैसा है। रामचन्द्रन के चित्रों को देखना भारतीयता का सिंहावलोकन करना है। रामचन्द्रन के चित्रों का अवलोकन भारतीय समाज के विकास का अवलोकन है। आप भारतीय सौन्दर्य दृष्टि से भी परिचित होते हैं। यानी समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ रामचन्द्रन की कला भी विकसित होती नज़र आती है। बदलाव का स्पन्दन रामचन्द्रन के कैनवास, प्रिन्ट और मूर्तिकला पर महसूस किया जा सकता है।


समकालीन भारतीय कला जिस तरह के पाश्चात्य कला की पिछलग्गू रही है और जिस तरह से तथाकथित एक अत्यन्त छोटे से, औपनिवेशक भारत के अवशेष, अंग्रेजों के आज भी मानसिक रूप से गुलाम अंग्रेज़ी बोलनेवाले कला समीक्षकों, कला दीर्घा के मालिकों ने भारतीय कला के घिनौने व बकवास परिदृश्य को भारतीय कला के रूप में दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है उस निरर्थक आधुनिकतावाद को खारिज करती सौन्दर्य दृष्टि है, रामचन्द्रन की कला। रामचन्द्रन की कलात्मक परिपक्वता के तार्किक कारण हैं, रामचन्द्रन की पारिवारिक और उनकी आकस्मिक पृष्ठभूमि।

 केरल के एक सुदूर कस्बे अट्टिगन में 1935 में जन्में रामचन्द्रन ने किशोरावस्था में शास्त्रीय संगीत की दस वर्षों तक औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। बचपन में कृष्णस्वामी मन्दिर के भित्तिचित्रों ने इनके मानस पर गहरा असर किया। बाद में आपने मलयालम साहित्य में केरल विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। उसके बाद साहित्यिक और शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय रहे। तिरूवनन्तपुरम आकाशवाणी के लिए गाया भी। केरल विश्वविद्यालय के एक स्कॉलरशिप पर कला भवन शान्तिनिकेतन में नामांकन कराया और फाइन आर्ट की यह पढ़ाई 1961 में समाप्त हुई। यहाँ उन्होंने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया और वह था, कला भवन के लिए मातनचेरी महल के कुमारसम्भव म्यूरल की कॉपी करना। इसके साथ इन्होंने केरल की सुदूर यात्राएँ की तथा वहाँ के म्यूरल पेंटिग्स का सर्वे व डाक्यूमेंटेशन का काम किया। इस अध्ययन का प्रभाव रामचन्द्रन की समग्र कला पर दीखता है। साहित्य और संगीत के अध्ययन ने उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान की। मलयाली साहित्य के अध्ययन ने उन्हें तार्किक बनाया। इनके देखने, अवशोषण और रचनात्मक उद्गार में औरों से भिन्न दृष्टि इसी कारण बनी।



ला भवन शान्तिनिकेतन इस दृष्टि में महत्त्वपूर्ण रहा कि उनकी कला दृष्टि को बनाने में नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज जैसे कला आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकिंकर बैज की वजह से इनकी दिलचस्पी सन्थालों के प्रति, आदिवासियों के प्रति बढ़ीं। उन्होंने रामचन्द्रन को वह दृष्टि दी जो देशी सौन्दर्य के अवलोकन के लिए ज़रूरी थी। आदिवासियों में सौन्दर्य का मतलब था विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य। रामचन्द्रन ने न सिर्फ़ देखा बल्कि उसकी नित नवीन व्यवस्था अपने चित्रों में करते रहे। चाहे वे झील हो या राजस्थान के सुदूर गाँवों के ग्रामीण। समकालीन भारतीय कला में भारतीय तत्वों का निषेध है। चाहे सुबोध गुप्ता हों या शिल्पा गुप्ता, जीतीश कलात हों या रियाज कोमू या कृष्णाचारी बोस हो सभी पाश्चात्य सौन्दर्यमुखी चित्रकार हैं। इनके यहाँ भारतीयता के तत्व नहीं के बराबर हैं। अगर कभी-कभार परिलक्षित होते हैं तो वे अवचेतन में आकस्मिक रूप से ही आये हुए होते हैं। खैर, शान्तिनिकेतन ने रामचन्द्रन की कला दृष्टि को परिपक्व होने में काफ़ी मदद की।

रामचन्द्रन के विगत लगभग चार दशकों की कला यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए तो पाएंगे कि इनकी कला में सतत विकास का एक ग्राफ़ दीखता है। सतत विकास के कारण यह सदैव परिवर्तनगामी रहा है। साठ के दशक में यानी शान्तिनिकेतन छोड़ने और जामिया मिलिया इस्लामिया में आने के बाद इन्होंने अपने को विशुद्धतावादी बनाने का यत्न किया। एनाटॉमी, गेस्चर,  ह्यूमन बॉडी, मैन एंड सींटड फीगर, होमेज आदि चित्रों के जरिये उन्होंने एनाटॉमी, मानव शरीर के सौष्ठव, मांसपेशियाँ पर मास्टरी हासिल की। इसके साथ उस उम्र की स्वाभाविक जिज्ञासाओं के लिए कैनवास पर लगातार प्रयोग किये। रेखाओं, रंगों, आकृतियों, स्पेस सभी के साथ। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, मानवीय सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया। स्केवेंजर वूमन का पोट्रेट अभिजात्यवर्ग का सुधी दर्शक शायद एप्रीशिएट नहीं कर सकता था, पर रामचन्द्रन ने किया। उन्होंने ईसा को, गाँधी को चित्रित किया। लास्ट सपर को पुनःचित्रित किया। रामचन्द्रन के इस समय के अधिकतर चित्र हिंसा के विरुद्ध थे। एनकाउंटर, काली पूजा, मशीन, रिसरेक्शन ऐसे ही चित्र हैं। यह रामचन्द्रन का सामाजिक सरोकारों से, राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़ाव व उनके रचनात्मक/प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन था। ज्ञातव्य है कि उस दशक में भारत ने दो महत्त्वपूर्ण युद्ध भारत-चीन और भारत-पाक को झेला था। रामचन्द्रन की रचनात्मक अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में यह तात्कालिक परिवेश कहीं महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा था। इस समय रामचन्द्रन ने कुछ प्रिंट मेकिंग (एंचिंग) भी किया। इन कृतियों में द लवर्स, लास्ट सपर, स्केवेंजर वूमन का पोट्रेट, क्रूसिफ़िकेशन, द क्राइस्ट महत्त्वपूर्ण हैं।

त्तर के दशक में रामचन्द्रन की कला थोड़ी आगे बढ़ती है। यादवों का अन्त, न्यूक्लिअर रागिनी, दे चेज़, ऑडीएंस, सीलिंग जैसे समसामयिक विषयों का प्रवेश होता है। शहरी जीवन की भागमभाग, आतंक, हिंसा उनके पंसदीदा विषय रहे। पर सत्तर के दशक के अन्तिम वर्षों में परिवर्तन आने लगता है। मिथकीय विषयों, नायकों-नायिकाओं का प्रवेश होता है। जो अस्सी के दशक में परिपक्व होता है।

गान्धारी, अभिसारिका नायिका, विरहिणी नायिका जैसी नायिका शृंखला के चित्र, मिनिएचर शृंखला, द फ्लाई व डाइंग बहादुशाह जफ़र, वास्को डी गामा, सीटेस वूमन, मदर टेरेसा जैसे चित्रों के जरिए रामचन्द्रन का क्रमिक शिफ्ट दीखता है। इसके जरिये रामचन्द्रन सत्यान्वेषी तरीकों का इस्तेमाल करके ऐतिहासिक विषयों को समकालीन बनाते हैं। पर मिथकीय चरित्रों का कैनवास पर उभरना जातीय स्मृति का रंगीन अंकन माना जाना चाहिए।

स्सी के दशक का उत्तरार्ध रामचन्द्रन का टेक ऑफ है। आंधी, ययाति, उषा, मध्याह्न, सन्ध्या, डांसिग वूमन, नीयर लोटस पौंड, ऑरेंज लोटस पौंड, लोटस पौंड के जरिये रामचन्द्रन भारतीय मिथ में प्रवेश कर जाते हैं। ये चित्र काल के लिए आघात की तरह हैं। अपनी चित्रभाषा दृश्यता, स्वप्नशीलता और उत्कृष्ट व उदात्त रंग योजना के कारण भारतीय कला दर्शकों को अभिभूत कर जाते हैं। ये मिथकीय आख्यान लोक जड़ों से गहरे जुड़े होने के कारण संवाद परक भी है।

ब्बे के दशक में रामचन्द्रन का सम्पूर्ण कला व्यक्तित्व निखर जाता है। अपनी ख़ास सांगीतिक चित्र शैली को रामचन्द्रन आविष्कृत करते हैं। इस चित्र शैली में भारतीय सौन्दर्य परम्परा, भारतीयता, भारतीय विचारधारा की गूँज, अनुगूँज जादुई ढंग से सुनाई पड़ती है। रामचन्द्रन ने ययाति, उर्वशी, गान्धारी, कुन्ती, कूर्मावतार, रामदेव, मानसरोवर, उषा, सन्ध्या सभी का पुनराविष्कार किया है। ये चरित्र संवाद परक हैं।

रा
मचन्द्रन की समूची कला यात्रा को देखे तो पाते हैं कि उनकी संवेदनशीलता लगातार विस्तार पाती रही है न्यूक्लियर रागिनी का 1975 में सृजन हुआ जिसका विस्तार हम जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र (2005) में पाते हैं। हिरोशिमा में न्यूक्लियर विस्फोट, बंगाल में नक्सलवादी हिंसा और पोखरन न्यूक्लियर विस्फोट के बाद न्यूक्लियर रागिनी का विकास हुआ। उक्त चित्र में एक रागिनी नायिका को एक आईना दिखाया जा रहा है। जिसमें उसके खूबसूरत चेहरे के बजाय चेहरे का कंकाल ही दीख रहा है। यह आण्विक युग की सच्चाई दिखाता है। इसकी जड़ें तलाशने रामचन्द्रन जा पहुँचते हैं कुरुक्षेत्र। जिसमें वे कुन्ती और गान्धारी के जरिये, चैपड़ के खेल में महाभारत के युद्ध की जड़ें तलाशने का प्रयास करते हैं।

मानसरोवर श्रंखला (1997), कमल सरोवर श्रंखला में कमल वाले तालाबों का अद्भुत चित्रण रामचन्द्रन ने किया है। ये दरअसल रामचन्द्रन के बचपन की स्मृतियाँ है। जिसने उन्हें सम्मोहित कर रखा है। उनके केरल के कस्बे अट्टिगल की स्मृतियाँ है। जिसका प्रसव मानसरोवर शृंखला में परिपक्व रूप में हुआ पाते हैं। जिस पर मिथकीय आवरण भी दिखता है। कमल का सरोवर में अलग-अलग काल में अलग रूप दीखता है। कृष्ण के बाँसुरी के साथ सरोवर में उड़ते कीटों का अद्भुत चित्रण हैं यहाँ। कीट के बहाने सरोवर और कमल की अद्भुत सौन्दर्यपरक व्याख्या का अन्यतम उदाहरण है यह।


प्रकृति से रामचन्द्रन का लगाव अनायास नहीं है। बंगाल और केरल की प्राकृतिक छटा का असर होना ही था। चाहे महुआ हो या कम्दब, पलाश हो या कंचन उसकी पत्तियाँ, उसके फल, उनसे लगे फूल और बेल बूटे सभी अपने बाह्य और अन्तरजगत की सुन्दरता के साथ कैनवास पर मौजूद होते हैं।

रामचन्द्रन का एक रूप और है, आदिवासी चरित्रों को मिथकीय चरित्रों में अभिव्यक्त करना। राजस्थान से रामचन्द्रन का गहरा जुड़ाव रहा है। हरेक यात्राओं में उन्होंने भीलों का, भील कन्याओं, मजदूरों का रेखांकन किया है। ‘हन्ना और उसकी बकरियाँ’ ऐसे चित्रों में प्रमुख है। हन्ना उन्हीं भील लड़कियों में एक थी जिनके लिए रामचन्द्रन स्नेह से मुक्त न हो पाने की असमर्थता जताते हैं। (रूपिका चावला एक निबन्ध में) ‘कूर्मावतार के साथ सविता’ बनेश्वर मेला के मार्ग पर ‘नागन्धा पर पुनर्जन्म, सुखा का व्यक्ति चित्र, रत्नी का व्यक्ति चित्र, कमला का व्यक्ति चित्र, लोगर का व्यक्ति चित्र, अहल्या पीले में, युवा दुल्हन के रूप में सोल्की, जमुना/अन्ना और अमलताश, एक नयनी, सुन्दरी का व्यक्ति चित्र ऐसे ही प्रमुख चित्र हैं।

भीलों और सन्थालों के चित्रण के साथ रामचन्द्रन के चित्रों में आम आदमी स्थापित होता है। भीलों की ओर ध्यान आकृष्ट करने में रामचन्द्रन के चित्रों की भूमिका अहम रही है यह आम आदमी सुबोध गुप्ता के आम आदमी से एकदम भिन्न है। सुबोध का आम आदमी जहाँ आभिजात्य वर्ग के बीच एक गुलाम हिन्दुस्तानी की तरह अभिव्यक्त होता है वहीं रामचन्द्रन का आम आदमी अपनी गरिमा का पुनस्र्थापन पाता हैं। एक कला समीक्षक ने सही लिखा है कि वे समकालीन कला में उपेक्षित और वंचित जनों की सुधियों के कलाकार हैं।


रामचन्द्रन के अधिकतर चित्र तैल माध्यम में सृजित हैं। इसके साथ इन्होंने जल रंग और मूर्तिशिल्प में भी कार्य किया है। जल रंगों में भी रामचन्द्रन का सौन्दर्यबोध पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त होता है। गीत गोविन्द पर आधारित मानसरोवर शृंखला (1997), अज्ञात की मिथकीय यात्रा (1996), इन्कारनेशन शृंखला (1995) कदम्ब का पेड़ और नन्दी सांढ (1995), नागलिंग का पेड़ (1995), बाकर्स एट लिलि पौंड (1995) नागदा में मत्स्य अवतार (1996) मत्स्य अवतार (1996) बनेश्वर मेला से सम्बन्धित चित्र (1998), रामदेव (1998) तूतीनामा शृंखला (1999) कमल का चुनना (2002) से लेकर ध्यान चित्र शृंखला (2007) तक रामचन्द्रन के जलरंगों का विस्तार है।


चि
त्रकार रामचन्द्रन की रचनात्मकता का विस्तार विगत वर्षों में मूर्तिशिल्प और इंस्टालेशन में भी हुआ है। गर्ल विथ वाटर लिलिज, इन ट्रांस, द गर्ल विथ प्लांट एंड इन्सेकट्स, ब्राइड ट्वायलेट (2004) जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र (2005), बहुरूपी (2006) इनके महत्त्वपूर्ण मूर्तिशिल्प हैं। जेनेसिस ऑफ कुरुक्षेत्र के बहाने महाभारत का उत्स ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं रामचन्द्रन, तो बहुरूपी तक आते-आते रामचन्द्रन की सम्पूर्ण कला दृष्टि एक उच्चतम शिखर तक पहुँच जाती है यानी ध्यानस्थ रामचन्द्रन, बकरी में तो कभी स्त्री के पैरों के नीचे, कभी आईना दिखाते तो कभी मुखलिंग के रूप में सभी जगह मौजूद होते हैं, एक समवेत दृष्टि के साथ।

वर्तमान समकालीन कला में पश्चिम से आक्रान्त भारतीय कलाकारों के मध्य रामचन्द्रन एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह दीखते हैं जो अपने सृजन में कलात्मक व प्रगतिशील मानवीय मूल्यों के कारण सबसे अलग हैं।

लेखक : विनय कुमार
("क" कला सम्पदा और वैचारिकी", जुलाई-अक्टूबर-२००९ अंक से साभार)


Monday, April 05, 2010

इस अगम परिसर में - सम्पादकीय: विजय शंकर

पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादेमी ने सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन, नागपुर में आयोजित किया था। यह दूसरा आयोजन था। पहला उन्होंने मुम्बई में किया था। मैंने भी उसमें शिरकत  की थी। मुझे बहुत खुशी हुई। साहित्य अकादेमी, दिल्ली को छोड़कर शायद ही किसी राज्य की अकादेमी ने इस तरह की पहल की हो। महाराष्ट्र की हिन्दी साहित्य अकादेमी ने यह जिम्मेदारी ली है, यह एक सुखद और अपेक्षित क़दम था। महानगरीय सोच से ही यह उम्मीद की जा सकती है। लेकिन खुश होने की कोई ख़ास वजह दिखायी नहीं दे रही है। इस सम्मेलन को लेकर कई प्रश्न  ज़हन में उभरे। आप सब की नज़र कर रहा हूँ।

1: अन्य भाषाओँ के साहित्य से ‘सम्मेलन’ के कर्ता-धर्ताओं का कितना परिचय है? (साहित्य को मैं व्यापक अर्थ में ले रहा हूँ)।
2: अन्य भाषाओँ की लिपि को हम क्या चिह्नित कर पाएँगे?
3: आधुनिकता के मुद्दे पर अन्य भाषाओँ में विचार क्या यह एक बड़ा मुद्दा नहीं है?
4: अन्य भाषाओँ से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओँ में अनुवाद एक आत्यन्तिक ज़रूरत है इसे कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया।
5: भाषा वैज्ञानिकों की इसमें कोई भूमिका नहीं थी।
6: अपने देश काल से जुड़े ज्वलंत प्रशनो पर साहित्यिकों की भागीदारी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। जैसे जल, पर्यावरण, शिक्षा,  स्वास्थ्य और बचपन।
7: युवाओं की अनुपस्थिति-भाषा को लेकर उनकी सोच और साहित्य से उनका लगाव?
8: भावुकता से अलग भाषा नीति पर गम्भीर विचार-विमर्श?
9: सम्पर्क लिपि की अहमियत, उसकी आवश्यकता, उस दिशा में पहल।
जिस घर में तुलसी का पौधा है उस घर का कर्ता ही हमारी सांस्कृतिक विरासत का वारिस है, वही हमारी पंचायत में शामिल होने का हक़दार है, ठीक ऐसे ही चाहे किसी भाषा का 
साहित्यिक हो, पत्रकार हो, भाषा प्रेमी हो यदि वह हिन्दी में अपनी बात कर सकता है तब ही वह इस सम्मेलन में शरीक़ होने की काबिलियत रखता है। यह शायद मजबूरी हो सकती है लेकिन इससे बाहर निकलने का रास्ता हमने सोचा नहीं कोशिश करते तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था।
हम इस अगम परिसर में प्रवेश करना चाह रहे हैं। हमारी एक छोटी-सी पत्रिका है। सीमित संसाधन है, लेकिन कुछ करने का साहस है। मनुष्य होने के नाते सोचने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
एक एहसास है। दुःख है। एक सरल-सहज जीवन जीने-की जीते रहने की आकांक्षा है। एक अपनी भाषा है-उसमें जीने का सुख है। दूसरी भाषाओं से प्रेम है क्योंकि वह भी मनुष्य की भाषा है।
एक बड़ी लड़ाई तो यही है कि झूठ के खि़लाफ़ लड़ा जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि जब तक इसके खि़लाफ़ लड़ने को हम तैयार होते है, वह सच में बदल जाता है। ऐसे झूठ और ऐसे सच से ही दुनिया चल रही है। इसीलिए महानुभावों ने सत्य की बात की थी। सत्य खाली समय का उद्यम नहीं है। वह आपसे सातत्यता की आशा करता है-दूसरों की शर्तों पर नहीं। वह जीवन की अमौलिकता में बिखरा पड़ा है। जितना लौकिक है उतना ही अलौकिक भी है।
लेखक अपनी भाषा में झूठ नहीं लिखते। अपनी भाषा की गहरी पकड़ और साहित्य के मानदण्डों पर खरा उतरना ही शायद उसकी कसौटी है। अपने देश-काल, जीवन-शैली, और स्वाभाविकता की प्रतीति ही शायद हमारे जीवन में बिखरे असत्य को अस्वीकार करने में मदद करेगी।
हम भारतीय भाषाओं के साहित्य को जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस बार हमने अन्य भाषाओं के काव्य और कविता को आधार बनाया है। कविता ही सबसे सरल सषक्त और सबसे जटिल माध्यम है इस प्रतीक्षारत मानस में प्रवेश पाने का। सबसे गहरी चोट भी कविता करती है-सबसे ज़्यादा आनन्द भी कविता ही प्रदान करती है।  मुझे लगता है शब्दों की महत्ता और उच्चारण की निष्छल संगति ही अन्य भाषाओं को निकट लाने में सबसे अहम् भूमिका निभा सकती है। इस पर नये सिरे से सोचा जाना चाहिए।
पहले हमने इसे कालबद्ध करने की सोची थी लेकिन कविता को काल से क्या लेना देना। हमने श्रेष्ठता ही आधार रखा। इस बार हम उड़िया कवि राधानाथ राय और पंजाबी कवि हरिभजन सिंह पर अपना अंक उपकेन्द्रित कर रहे हैं। उड़िया भाषा का एक खण्ड काव्य, पंजाबी भाषा की कुछ कविताएँ और एक-एक परिचयात्मक लेख।
हमने ऊपर एक प्रश्न उठाया है-लिपियों को चिह्नित करने को लेकर। हम उड़िया लिपि और गुरुमुखी कि एक बानगी आपके समक्ष रख रहे है-एक अनिवार्य परिचय की मानिन्द। लिखित रूप में, आँखों के सामने प्रस्तुत करने का मोह, एक अदृश्य-सी चाहना है।
आपके रचनात्मक सुझाव, इस कार्यक्रम के लिए आपकी भागीदारी, प्रस्तुत काव्य और कविताओं पर आपकी समीक्षा और सहृदय-का सा मन बनाने में आपका सहयोग सिर-आँखों पर।

 
- विजय शंकर
(लेखक 'क' कला सम्पदा एवं वैचारिकी, द्विमासिक कला पत्रिका के संपादक हैं)
http://www.kalasampada.com

Saturday, March 27, 2010

इस वर्ष की डिजाईन: पुस्तकें

 #1. आकाश रस  - विजय शंकर | प्रकाशक - "क"  दिल्ली
 
  #2. दुबई ड्रीम्ज -शामलाल पुरी | प्रकाशक - "दुबई"  
 
#3. धूप से रूठी चांदनी  - सुधा ओंम ढींगरा | प्रकाशक - "शिवना सीहोर" 
#4. कोई दीवाना कहता है  - डा. कुमार विश्वास  | प्रकाशक - "फ्यूजन बुक्स" दिल्ली 
#5. शोर के पड़ोस में चुप सी नदी  - मनीष मिश्र  | प्रकाशक  - "हिन्द युग्म"  दिल्ली
#6. संभावना डाट कॉम  - शैलेश भारतवासी  | प्रकाशक  - "हिन्द युग्म"  दिल्ली 

#7. रोशनदान  - शन्नो अग्रवाल | प्रकाशक  - "हिन्द युग्म"  दिल्ली 
#8. तस्वीर जिन्दगी के  - मनोज भावुक | प्रकाशक  - "हिन्द युग्म"  दिल्ली 
 #9. शब्दों का रिश्ता  - रश्मि प्रभा   | प्रकाशक  - "हिन्द युग्म"  दिल्ली
                 
इन सभी किताबों के डिजाईन / आवरण कवर व इनर लेआउट हमने किये हैं...
 उम्मीद है आपको पसंद आयें..सुझाओं का स्वागत है ....

Saturday, March 13, 2010

कुछ ताजी कवितायेँ...

हा में ही लिखीं कुछ ताजी कवितायेँ...अभी बीज बोयें हैं... वयस्क नहीं हुई हैं..ग्रो होने में समय लगेगा...

1.

कितनी बार
और मिलोगे...
थकते नहीं...
कहीं तो रुको...
तथ्य अकारण तो नहीं...
शून्यता से परे...
अनुरोध आपका
मुक्त बंधन
साधना, निर्वासन
आधूत, निमग्न
साक्षी बन
कितनी बार
और मिलोगे...

2.


















उसने निर्वासन झेला,
विस्थापन की पीड़ा थी
उसकी आँखों में...
उसने अपने शब्दों को
उस चित्र में तलाशने की
कोशिश की...
एक हल्की सी मुस्कराहट
उसके चहरे के
विस्तार को नाप गयी...

-अलीसिया पारटोनी की कविता पर
पेंटिंग बनाने के बाद लिखी...


3.

उन्होंने मुझे शामिल नहीं किया
अपनी बिरादरी में....
सभी परिभाषाओं को नकारते हुए
मैंने छलांग लगाने की कोशीश की...
तो आत्म विश्वास आड़े आ गया...
अब वह मुझे पाताल की ओर
धकेले लिए जा रहा है.....

4.

उसने पाताल से निकलकर
लिखी एक कविता....
विजय पा ली
अपने गिरते आत्म विश्वाश पर...
शून्यता से दूर
गगन में तारों के साथ
खेलने लगी...
उसने एक कविता लिख दी
संसार रच डाला...

5.

वह कुत्ते की तरह ललचाता हुआ
मेरे नजदीक आता है...
चाटने लगता है मुझे...
हिम्मत करके मैं उसे डांटता हूँ...
वह एक पल के लिए भागता है...
फिर धीरे धीरे वापस लौटता है...
उस दिन भी आया
पर मैंने उस पर विजय पा ली...
शायद मुझे रुकना आ गया...

Thursday, February 11, 2010

पांचवा - इंटरनॅशनल पोयट्री फेस्टिवल आफ कृत्या-2010

कृत्या2010 के अन्तिम दिवस की शाम, हम सब अजीब सी मनोस्थिति में है, एक बेहद सशक्त काव्य पाठ की सुनहरी आभा के बीचोबीच में से गुजर चुके हैं, मादक मोहात्मकता हमें बाँध रही है यात्राएँ हमें अपने नीड़ की ओर ले चलने को तैयार हैं...
अलग अलग भाषाएँ, अलग अलग अलग प्रान्त , देश के विभिन्न भोगोलिक कोण, लेकिन कृत्या ने हमें ऐसा जोड़ा कि मानो हम एक मुहल्ले के रहने वाले हैं.
शब्द, चित्र औ फिल्म एक साथ चले। शब्दों और चित्रों की जुगलबंदी हुई..शब्दों ने चित्रों की रचना की और चित्रों ने शब्दों की। कृत्या ने एक ही प्लेटफ़ॉर्म पर देशीय व अंतर्देशीय कवियों, चित्रकारों और फिल्मकारों को पेश किया जिसका श्रेय डॉ रतिसक्सेना (Managing Trustee Kritya & Editor www.kritya.in) और उनकी पूरी टीम को जाता है॥
वह कहती हैं...

कविता सवाल छोड़ती है, जमीन से जुड़ाव आजीवन कारावस तो नहीं, कहीं इसीलिए तो कबीर बाबा कह बैठे......
रहना नही देश बिराना...

इस बार फेस्टिवल की थीम थी "Exile, Trauma & Survival" जिस पर कविता हुई, पेंटिंग्स बनी, और फ़िल्में दिखाई गयीं..कृत्या विस्थापन के विभिन्न आयामों से गुजर चुकी है, विभिन्न बिन्दुओं को तलाश रही है, और एक अन्तिम सहमती की ओर रास्ता बना रही है। इस सफर में कविता फिल्मों ने साथ दिया, साधो की उपस्थिति और ओदवे की भारतीय कवियों पर बनाई गई फिल्में कविता के इस सफर को दृष्टि देती रहीं। भारतीय कवियों की आवाज को ओदवे विश्व पटल पर ले कर घूमीं.

कुछ प्रमुख विदेशी कवियों में पीटर वाग, हनाने आद, ओदवे , कोस्टा रिका के ओस्वालडो सौमा, सिंगोनिया सिंगोने, तेनसिंग, नोर्वे के ब्रेयान, इजराइल की दिति रोनेन इरान के बहजाद जरीनपुर, अर्जेटाइना की एलिसा पार्टनोई, एनरिक मोया और भारत से प्रयाग शुक्ल, अग्निशेखर, शैलेय, अलका त्यागी, अमित कल्ला, युवा कवि निशांत, दुष्यंत आदि ने अपनी अपनी रचनाएँ पेश कीं..

अर्जेटाइना की एलिसा पार्टनोई ..जिन्होनें निष्कासन के दर्द को व्यक्तिगत रूप में झेला था ने काव्य पाठ का आरम्भ किया , यह कहते हुए-

उन्होने मेरे पाँवों के नीचे से
मेरे देश को खींच लिया
निष्कासन‍- यह नाम देकर
अचानक इस तरह
मेरे पैरों के नीचे की जमीन खींच ली
मेरे चारों ओर अब दूरियाँ ही दूरियाँ...

एलिसा पार्टनोई इन लाइनों को मैंने प्रांजल आर्ट्स के द्वारा आयोजित आर्ट वर्कशॉप में अपनी पेंटिंग का सब्जेक्ट चुना..

प्रांजल आर्ट्स के सर्वजीत सिंह एवं उनकी पत्नी नीरू सिंह जो स्वयं एक कुशल चित्रकार हैं ने वर्कशॉप को एक आकर दिया..
उनके साथ उनकी टीम में हिस्सा लेने वाले प्रमुख चित्रकारों में से ग्वालियर के मुस्ताक खान चौधरी, नीरूसिंह, जयपुर से अमित कल्ला, बंगलोर से शरद, मैसूर से विश्वनाथन, जम्मू कश्मीर से वागे विलाल, इलाहबाद से विद्यासागर, आस्ट्रेलिया से डैनियल, दिल्ली से स्वप्न भंडारी, विशाल भुवानिया और में विजेंद्र एस विज थे...सभी ने अपनी पसंदीदा कवितायेँ थीम को चुना और पेंटिंग्स बनायीं.. यह सभी चित्र जल्द ही कृत्या और प्रांजल आर्ट्स की आर्ट गैलरी में देखे जा सकेंगे...

हर शाम 7:00pm to 9:00 pm पोयट्री पर फिल्म्स दिखायीं गयीं.. प्रमुख फिल्मों में :

1. "The poet and the world"
by Odvieg Klyve & Kari Klyve Gulbrandsen, Bjorn from Norway

2. "Labyrinth:self, nature and dreams"
by Akash Gaur, India

3. "At the Midnight hour" by Samit Das, India
4. "Breathing without Air" by Kapilash Bhuvan, India

और दूसरे दिन की शाम यानी 4th Feb, साधो के नाम रही साधो टीम से जीतेन्द्र रामप्रकाश और पारिजातकौल हिन्दी और अंग्रेजी की 20 फ़िल्में पोयट्री पर दिखाई...

हम कविता के साथ बह रहे थे सब के हाथों में पतवार थी...कलम की, कूची की और कैमरे की..और कविता ले जा रही है हमे अपने पंखो पर पर बैठा निष्काशन से दूर...बहुत दूर.....