Friday, October 15, 2010

असमय की कथा

ह असमय की कथा है। तब मनुष्य नहीं थे। न उसका सोच था, न समय, न उसका अंह था न उसका स्वार्थ। किसी महासंग्राम की बेला में ईश्वर ने सोचा होगा एक ऐसे जीव की रचना करें जो न सुर हो न असुर। इन दोनों के बीच का प्राणीकृ जो अपने सोच से, आचरण से, अपनी इच्छा से और आसक्ति से चाहे तो सुर बन सकता है या फिर असुर। उसने मनुष्य बनाया। ऐसे विचारवान मनुष्य को हमेशा मनुष्य बने रहने का सबब ढूँढ़ते रहना होगा।


एक मिथकीय सन्दर्भ है-समुद्र मन्थन। समुद्र मन्थन में सबसे पहले विष निकला, जिसे शिव ने अपने कंठ में धारण किया, इसी से उन्हें नीलकंठ कहा जाने लगा। फिर कामधेनु का आर्विभाव हुआ। कामधेनु न सुरों के साथ रहना चाहती थी न असुरों के साथ। उसे मनुष्यों के बीच रहना था। स्वेच्छा से उसने मुनि वशिष्ठ के पास जाना स्वीकार किया। वशिष्ठ मनुष्य थे, ऋषि थे।

बाद में मनुष्य ने जो सोचा वह आपके सामने है। ‘सुसज्जित गाय’ का रूपक लेकर चित्रकार सिद्धार्थ हमें इसकी परिक्रमा करा रहे हैं , उस गाय की जिसकी हमने पूजा की है, जिसे हम कामधेनु कहते थे, जिससे मिथकीय चरित्रों का अनन्य अनुबन्ध है, जिसे महाभारत में ‘बहुला’ कहा गया, जिसके लिए लड़ाइयाँ हुई, जिसका सभी तरह से उपयोग/उपभोग हम इन दिनों कर रहे हैं।

यह मिथकों को केन्द्र में रखकर ही सम्भव था। पुराकथाओं और वास्तविकता को एक साथ रखने में ही इसकी सम्भावना थी। इस कला प्रदर्शनी में गाय यानी एक निरीह प्राणी की भौतिक उपस्थिति से ही हम परम्परा के छद्म को रेखाओं में, आकृतियों में, प्राकृतिक रंगों में, कथाओं के माध्यम से विवस्त्र और निर्वस्त्र देख रहे हैं।

गाय तो अब भी वैसी ही हैकृअपनी संरचना में, स्वभाव में, अपनी दैनन्दिनी में, अपने दैविक रूप मेंकृहम ही बदल गये हैं। मनुष्य के इस तरह बदलने को प्रश्नांकित करती इस कला प्रदर्शनी में आपका स्वागत है।

एक और नज़रिये से हम चित्रकार सिद्धार्थ की कलाकृतियों को देख रहे हैं। शास्त्रीयता की कसौटी पर परखना चाह रहे हैं। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर पंडित ने ‘चित्रकला’ (आलेख्य) के छह अंग बताये हैं।

रूपभेदाः प्रमाणनि भावलावण्ययोजनम्।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्र षंडगकम।।

जैसा मैं समझ रहा हूँ, सिद्धार्थ यहाँ भी खरे उतरे हैं।

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने षंडग की व्याख्या की है। हम अपने पाठकों के लिए, कला मर्मज्ञों के लिए, तथाकथित कलाकारों के लिए इस व्याख्या को पुनःप्रस्तुत कर रहे हैं-एक नयी शुरुआत के लिए।

शुभकामनाएँ।

- विजय शंकर
(लेखक 'क' कला सम्पदा एवं वैचारिकी, द्विमासिक कला पत्रिका के संपादक हैं)
http://www.kalasampada.com