कई दिनोँ से
पन्ने पलटे नहीँ
सारे सफेद से पड गये है...
कुछ धुँधले भी...
जैसे,
कभी कुछ लिखा ही न गया हो...
जाने कब रंगे जायेंगे..
लाल, पीली, नीली..
और हरी स्याही से...
कभी कुछ अख्स उभरते तो हैँ..
पर गड्ड-मड्ड हो जाते हैँ
एक पल मेँ...
कोई भी शब्द एक
सीधी लकीर पर नहीँ दौडते..
कभी कुछ चलते तो है..
पर थक-कर चूर हो
आधे रस्ते से वापस आ जाते हैँ..
मै इन्हे पकडना चाहता हूँ..
उँगलियो से इन्हे छूना चहता हूँ...
इन पर अपने निशान छोडना चाहता हूँ..
पर मेरे हाँथ लगाते ही यह
छुई-मुई से मुरझा जाते हैँ...
..
विज, मार्च 2007
http://www.vijendrasvij.com
1 comment:
स्वागत है नये पते पर. कविता सुंदर है- :)
Post a Comment