Wednesday, June 21, 2006

कागज की कतरने

यादो के हर एक दामन से,
उन पलो के लम्हे चुराकर...

कागज की कतरनो पर, बयान किया है...
अपना प्यार बहुत है, तुम्हारे लिये
य़े अब सरेआम किया है...

Monday, June 19, 2006

द डिफरेंट स्ट्रोकस.. 01


तुम,
बस दूर खडे
एक मूक दर्शक की भाँति
आवाक देखते रहे...

और,
मुझे...उन चन्द
आडी-तिरछी लकीरो ने
असहाय बना दिया....

तुम!!!
चाहते तो रंगो की एक दीवार
खडी कर सकते थे.....

जुगलबन्दी - प्रत्यक्षा सिन्हा

मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश, चुप लडकी
जो सिर्फ आँखो से बोलती है,
उसके गालो के गड्डे बतियाते है
उसके होठो का तिल मुस्काता है
उसकी उगलियाँ खीचती है, हवा मे
तस्वीर, बातो की
पर, जब मै लोगो के साथ होती हूँ
मै बहुत बोलती हूँ...
पहाडी झरनो की तरह मेरी बाते
आसपास बह जाती है,
सिगरेट के छल्लो की तरह
हवा मे तैरती है..
लोग कहते है मै बहुत बातूनी हूँ..
पर लोगो को नही पता
मेरे अन्दर छिपी है
एक खामोश चुप लडकी...
जो सिर्फ आंखो से बोलती है...

कविता- प्रत्यक्षा सिन्हा