आज कुछ
धुधली पड गयी लकीरो को
फिर से गाढा किया...
उन पर कुछ रंग फेंके
लाल हरे नीले सफेद...
अब
कैनवस का कोई हिस्सा
खाली नही रहा.....
बडी खामोशी के साथ
उन फैले पडे रंगो को
घंटो निहारता रहा.....
अचानक,
गाढी पड चुकी लकीरे
अब अस्पस्ट नजर आने लगी...
और फिर,
पूरा का पूरा कैनवास खाली
बिल्कुल सफेद..
जैसे कभी वहा रंग थे ही नहीँ..
फ़ीकी पड चुकी लकीरेँ
अब शब्दो मे तब्दील हो गयी...
हाँ..यही शब्द तो थे.....
”रितुपर्ना तुम आज भी नहीं आयी”
5 comments:
कोशिशों के बाद भी मिली असफलता से उपजी निराशा का सुन्दर चित्रण ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति. बधाई.
समीर लाल
बडे दिनों बाद कविता पढी तुम्हारी. अच्छी लगी
वैसे ,रितुपर्ना कौन है विज़ ;-)
बढ़िया । ऋतुपर्ना वही है जो आज भी नहीं आई।
आयेगी ! एक दिन ज़रूर आयेगी . बस आप कहते रहिएगा कि 'मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिये'. आप जैसे कलाकार के पास नहीं आयेगी तो कहां जाएगी ऋतुपर्णा .
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