Monday, April 05, 2010

इस अगम परिसर में - सम्पादकीय: विजय शंकर

पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादेमी ने सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन, नागपुर में आयोजित किया था। यह दूसरा आयोजन था। पहला उन्होंने मुम्बई में किया था। मैंने भी उसमें शिरकत  की थी। मुझे बहुत खुशी हुई। साहित्य अकादेमी, दिल्ली को छोड़कर शायद ही किसी राज्य की अकादेमी ने इस तरह की पहल की हो। महाराष्ट्र की हिन्दी साहित्य अकादेमी ने यह जिम्मेदारी ली है, यह एक सुखद और अपेक्षित क़दम था। महानगरीय सोच से ही यह उम्मीद की जा सकती है। लेकिन खुश होने की कोई ख़ास वजह दिखायी नहीं दे रही है। इस सम्मेलन को लेकर कई प्रश्न  ज़हन में उभरे। आप सब की नज़र कर रहा हूँ।

1: अन्य भाषाओँ के साहित्य से ‘सम्मेलन’ के कर्ता-धर्ताओं का कितना परिचय है? (साहित्य को मैं व्यापक अर्थ में ले रहा हूँ)।
2: अन्य भाषाओँ की लिपि को हम क्या चिह्नित कर पाएँगे?
3: आधुनिकता के मुद्दे पर अन्य भाषाओँ में विचार क्या यह एक बड़ा मुद्दा नहीं है?
4: अन्य भाषाओँ से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओँ में अनुवाद एक आत्यन्तिक ज़रूरत है इसे कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया।
5: भाषा वैज्ञानिकों की इसमें कोई भूमिका नहीं थी।
6: अपने देश काल से जुड़े ज्वलंत प्रशनो पर साहित्यिकों की भागीदारी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। जैसे जल, पर्यावरण, शिक्षा,  स्वास्थ्य और बचपन।
7: युवाओं की अनुपस्थिति-भाषा को लेकर उनकी सोच और साहित्य से उनका लगाव?
8: भावुकता से अलग भाषा नीति पर गम्भीर विचार-विमर्श?
9: सम्पर्क लिपि की अहमियत, उसकी आवश्यकता, उस दिशा में पहल।
जिस घर में तुलसी का पौधा है उस घर का कर्ता ही हमारी सांस्कृतिक विरासत का वारिस है, वही हमारी पंचायत में शामिल होने का हक़दार है, ठीक ऐसे ही चाहे किसी भाषा का 
साहित्यिक हो, पत्रकार हो, भाषा प्रेमी हो यदि वह हिन्दी में अपनी बात कर सकता है तब ही वह इस सम्मेलन में शरीक़ होने की काबिलियत रखता है। यह शायद मजबूरी हो सकती है लेकिन इससे बाहर निकलने का रास्ता हमने सोचा नहीं कोशिश करते तो शायद इस स्थिति से बचा जा सकता था।
हम इस अगम परिसर में प्रवेश करना चाह रहे हैं। हमारी एक छोटी-सी पत्रिका है। सीमित संसाधन है, लेकिन कुछ करने का साहस है। मनुष्य होने के नाते सोचने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
एक एहसास है। दुःख है। एक सरल-सहज जीवन जीने-की जीते रहने की आकांक्षा है। एक अपनी भाषा है-उसमें जीने का सुख है। दूसरी भाषाओं से प्रेम है क्योंकि वह भी मनुष्य की भाषा है।
एक बड़ी लड़ाई तो यही है कि झूठ के खि़लाफ़ लड़ा जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि जब तक इसके खि़लाफ़ लड़ने को हम तैयार होते है, वह सच में बदल जाता है। ऐसे झूठ और ऐसे सच से ही दुनिया चल रही है। इसीलिए महानुभावों ने सत्य की बात की थी। सत्य खाली समय का उद्यम नहीं है। वह आपसे सातत्यता की आशा करता है-दूसरों की शर्तों पर नहीं। वह जीवन की अमौलिकता में बिखरा पड़ा है। जितना लौकिक है उतना ही अलौकिक भी है।
लेखक अपनी भाषा में झूठ नहीं लिखते। अपनी भाषा की गहरी पकड़ और साहित्य के मानदण्डों पर खरा उतरना ही शायद उसकी कसौटी है। अपने देश-काल, जीवन-शैली, और स्वाभाविकता की प्रतीति ही शायद हमारे जीवन में बिखरे असत्य को अस्वीकार करने में मदद करेगी।
हम भारतीय भाषाओं के साहित्य को जानने-समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस बार हमने अन्य भाषाओं के काव्य और कविता को आधार बनाया है। कविता ही सबसे सरल सषक्त और सबसे जटिल माध्यम है इस प्रतीक्षारत मानस में प्रवेश पाने का। सबसे गहरी चोट भी कविता करती है-सबसे ज़्यादा आनन्द भी कविता ही प्रदान करती है।  मुझे लगता है शब्दों की महत्ता और उच्चारण की निष्छल संगति ही अन्य भाषाओं को निकट लाने में सबसे अहम् भूमिका निभा सकती है। इस पर नये सिरे से सोचा जाना चाहिए।
पहले हमने इसे कालबद्ध करने की सोची थी लेकिन कविता को काल से क्या लेना देना। हमने श्रेष्ठता ही आधार रखा। इस बार हम उड़िया कवि राधानाथ राय और पंजाबी कवि हरिभजन सिंह पर अपना अंक उपकेन्द्रित कर रहे हैं। उड़िया भाषा का एक खण्ड काव्य, पंजाबी भाषा की कुछ कविताएँ और एक-एक परिचयात्मक लेख।
हमने ऊपर एक प्रश्न उठाया है-लिपियों को चिह्नित करने को लेकर। हम उड़िया लिपि और गुरुमुखी कि एक बानगी आपके समक्ष रख रहे है-एक अनिवार्य परिचय की मानिन्द। लिखित रूप में, आँखों के सामने प्रस्तुत करने का मोह, एक अदृश्य-सी चाहना है।
आपके रचनात्मक सुझाव, इस कार्यक्रम के लिए आपकी भागीदारी, प्रस्तुत काव्य और कविताओं पर आपकी समीक्षा और सहृदय-का सा मन बनाने में आपका सहयोग सिर-आँखों पर।

 
- विजय शंकर
(लेखक 'क' कला सम्पदा एवं वैचारिकी, द्विमासिक कला पत्रिका के संपादक हैं)
http://www.kalasampada.com

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