Saturday, March 13, 2010

कुछ ताजी कवितायेँ...

हा में ही लिखीं कुछ ताजी कवितायेँ...अभी बीज बोयें हैं... वयस्क नहीं हुई हैं..ग्रो होने में समय लगेगा...

1.

कितनी बार
और मिलोगे...
थकते नहीं...
कहीं तो रुको...
तथ्य अकारण तो नहीं...
शून्यता से परे...
अनुरोध आपका
मुक्त बंधन
साधना, निर्वासन
आधूत, निमग्न
साक्षी बन
कितनी बार
और मिलोगे...

2.


















उसने निर्वासन झेला,
विस्थापन की पीड़ा थी
उसकी आँखों में...
उसने अपने शब्दों को
उस चित्र में तलाशने की
कोशिश की...
एक हल्की सी मुस्कराहट
उसके चहरे के
विस्तार को नाप गयी...

-अलीसिया पारटोनी की कविता पर
पेंटिंग बनाने के बाद लिखी...


3.

उन्होंने मुझे शामिल नहीं किया
अपनी बिरादरी में....
सभी परिभाषाओं को नकारते हुए
मैंने छलांग लगाने की कोशीश की...
तो आत्म विश्वास आड़े आ गया...
अब वह मुझे पाताल की ओर
धकेले लिए जा रहा है.....

4.

उसने पाताल से निकलकर
लिखी एक कविता....
विजय पा ली
अपने गिरते आत्म विश्वाश पर...
शून्यता से दूर
गगन में तारों के साथ
खेलने लगी...
उसने एक कविता लिख दी
संसार रच डाला...

5.

वह कुत्ते की तरह ललचाता हुआ
मेरे नजदीक आता है...
चाटने लगता है मुझे...
हिम्मत करके मैं उसे डांटता हूँ...
वह एक पल के लिए भागता है...
फिर धीरे धीरे वापस लौटता है...
उस दिन भी आया
पर मैंने उस पर विजय पा ली...
शायद मुझे रुकना आ गया...

4 comments:

सुशील छौक्कर said...

जब भी लिखते अद्भुत सा लिखते हो।

Udan Tashtari said...

सभी रचनाएँ बहुत भावपूर्ण...चित्रकारी भी बहुत प्रभावी है. बधाई विजेन्द्र.

डॉ .अनुराग said...

शानदार दोस्त.......एक से एक........खासतौर से पेंटिंग के बाद वाली

के सी said...

बहुत ही अद्भुत. शब्द वही हैं मगर कितने गहरे कितने ताजा.