अक्सर देखता हूँ
वक्त को..
अपने नन्हे हाँथ फैलाये
दिल्ली की लाल बत्त्तियो पर...
यह..कभी कभी
साल मे दो-चार बार
तिरंगे झंडे को बेचकर भी
दो-वक्त की रोटी का जुगाड करता
दिख जाता है...
और कभी..
फटे चीथडो मे लिपटा...
फुटपाथ से चिपटा
दिख ही जाता है...
एक दिन तो मेरे करीब आकर बोला..
बाबूजी,
बस एक रुपया दे दो..
दो-दिन से कुछ खाया नही..
कभी...किसी दिन
यह शनि बन जाता है..
और थाम लेता है
सरसो के तेल से भरा एक कटोरा
अपने नन्हे हाथो मे...
और,
निकल पडता है
हमे शनि के शाप से
मुक्त करने....
यह हमेशा चलता रहता है..
कभी थकता भी नही..
इसके सोने और जागने का भी
कोई हिसाब नही रखता...
शायद...
यह हमेशा ऐसे ही चलेगा..
यह अक्सर दिखेगा..
कही...किसी भी लाल बत्ती पर..
और,
हम तमाशबीन बने दूर खडे..
इस वक्त को भी..
सिर्फ,
आते जाते ही देखते रहेंगे..
लोग कहते तो है
वक्त के साथ शायद....
सब कुछ बदल जाता है..
पर यह वक्त तो कभी नही बदला.....
-विज
( सितम्बर 2005. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)
12 comments:
कितनी मार्मिक कविता लिखी है.
मन मोह लिया.
विजेन्द्र भाई मैने पहले आपकी ये रचना पढी है बहुत अच्छा लगी दोबारा पढ़कर कुछ रचनाएं बार-बार पढ़ कर भी अच्छी लगती है...
शानू
बहुत सही!! साधुवाद!
विज भाई. बहुत सुन्दर रचना है यह. आपकी शैली में ही लिखा गया एक मार्मिक चित्रण, एक यथार्थ.
बहुत मार्मिक चित्रण है. बहुत खूब.
बहुत खूब!
अच्छी कविता है।
विज,
बहुत दिनों के बाद फिर एक हवा का झोंका बिखरा है
अच्छा है..
विकास जी, सुनीता जी, संजीत जी, अमित भाई, समीर जी, प्रमेन्द्र, राकेश जी, प्रमोद जी व मेरे सभी मित्रो...आपको रचना पसन्द आयी..उसके लिये सधन्यवाद.
एक भावमयी रचना!
दोबारा इसे पढ़ा!बहुत् अच्छा लिखा!
kafi achhi kavita likhi hai aapne sir ..
aur wo pankti to bar bar padhne ka ji hota hai ki;
dekha hai wakt ko nanhe hath failaye..
really it's very nice..
Post a Comment