Friday, June 29, 2007

लाल बत्तियोँ मे साँस लेता एक वक्त

अक्सर देखता हूँ
वक्त को..
अपने नन्हे हाँथ फैलाये
दिल्ली की लाल बत्त्तियो पर...

यह..कभी कभी
साल मे दो-चार बार
तिरंगे झंडे को बेचकर भी
दो-वक्त की रोटी का जुगाड करता
दिख जाता है...

और कभी..
फटे चीथडो मे लिपटा...
फुटपाथ से चिपटा
दिख ही जाता है...

एक दिन तो मेरे करीब आकर बोला..
बाबूजी,
बस एक रुपया दे दो..
दो-दिन से कुछ खाया नही..

कभी...किसी दिन
यह शनि बन जाता है..
और थाम लेता है
सरसो के तेल से भरा एक कटोरा
अपने नन्हे हाथो मे...
और,
निकल पडता है
हमे शनि के शाप से
मुक्त करने....

यह हमेशा चलता रहता है..
कभी थकता भी नही..
इसके सोने और जागने का भी
कोई हिसाब नही रखता...

शायद...
यह हमेशा ऐसे ही चलेगा..
यह अक्सर दिखेगा..
कही...किसी भी लाल बत्ती पर..

और,
हम तमाशबीन बने दूर खडे..
इस वक्त को भी..
सिर्फ,
आते जाते ही देखते रहेंगे..

लोग कहते तो है
वक्त के साथ शायद....
सब कुछ बदल जाता है..
पर यह वक्त तो कभी नही बदला.....

-विज
( सितम्बर 2005. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)

Saturday, June 09, 2007

मै बंजारा, वक्त के कितने शहरो से गुजरा हूँ

मै बंजारा,
वक्त के कितने शहरो से गुजरा हूँ
लेकिन,
वक्त के इक शहर से जाते जाते
मुडके देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
तुमसे मेरा ये नाता भी टूट रहा है
तुमने मुझको छोडा था जिस शहर मे आके
वक्त का अब वो शहर भी मुझसे छू रहा है..


जावेद अख्तर साहेब की यह नज्म मुझे बेहद अच्छी लगती है..बडा सुकूँन देती है आज भी..जब हम अपने उन शहरो को याद करते है..जिन्हे पीछे छोड आये..मेरे खयाल से मै ही नही.. मेरे जैसे कितने ही लोग होंगे जिन्होने शहर दर शहर बद्ले होगे..और हर शहर ने उन्हे कुछ न कुछ जरूर दिया होगा..उन्हे यह नज्म अपने ही दिल की एक जबान जरूर लगती होगी.. साढे छ: बरस पहले मै जब इलाहाबाद छोड दिल्ली आया था..तब उस्ताद शायरो, कवियो की शायरी और कविताओ के साथ जुगलबन्दी किया करता था..यह चित्र भी मेरी जुगलबन्दी का एक हिस्सा है..
महज छ: बरस पुराना...

-विज
http://www.vijendrasvij.com

Friday, June 01, 2007

त्रिनिदाद में हिन्दी का स्वाद--अशोक चक्रधर

कितना आनंदकारी होता है सुदूर देशों में वहां के निवासियों और प्रवासियों से हिन्दी सुनना। अपने देश में ही हिन्दी के विभिन्न रूपों की कमी नहीं है, जब बाहर जाते हैं तो हिन्दी की ध्वनियां और भी लुभावनी हो जाती हैं। पहली बार जब मॉरिशस गया था तब जो हिन्दी सुनी, बहुत निराली थी। जीवन की मिक्सी-ग्राइंडर में भोजपुरी, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, और क्रियोल को डालकर घुमाने के बाद ऐसी भाषा निकली जो जहां-तहां ही समझ में आती थी, पर लगती थी मीठी और अनूठी।


पां बरस पहले त्रिनिदाद जाने का मौका मिला। मिला भी कैसे? बताता हूं। भूमिका में आत्मश्लाघा लगे तो क्षमा करिएगा। हुआ यूं कि अचानक हिन्दी जगत में कुछ ऐसी हवा फैली कि अशोक चक्रधर नाम का जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया का हिन्दी का प्रोफेसर इन दिनों काफी कम्प्यूटर-कम्प्यूटर खेल रहा है। लैपटॉप, प्रोजैक्टर और पर्दा लेकर कुछ ऐसी चीज़ें दिखाता फिर रहा है जिससे पता चलता है कि कम्प्यूटर में हिन्दी किस रफ्तार से प्रवेश पा रही है।

मैं कम्प्यूटर की आंतरिक तकनीक के बारे में अधिक नहीं जानता था, लेकिन ये सच है कि हिन्दी से जुड़े सॉफ्टवेयर्स का अच्छा प्रयोक्ता बन चुका था। माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी ने सन 2000 में जब ऑफिस 2000 बाज़ार में उतारा तब पॉवर-पाइंट का प्रयोग करते हुए मैंने उनके लिए जो प्रस्तुतियां बनाईं और जगह-जगह दिखाईं उससे हिन्दी के उन हल्कों में, जहां सूचना प्रौद्योगिकी की प्यास थी, मेरी अच्छी-खासी पूछ होने लगी। कोई चीज़ थी ‘यूनिकोड’, जिसका बड़ा हल्ला था। माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेयर इंजीनियर समझाते थे कि भाषाई कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा। अब तो यूनिकोड की महत्ता सब जानते हैं लेकिन मैं सन 2000 में ही उसका नया-नया मुल्ला बन गया था। अपने सद्य:ज्ञान से हिन्दी प्रेमियों को यूनिकोड की महत्ता समझाता था। पर हाय! उन दिनों कंप्यूटर में यूनिकोड तब तक सक्रिय नहीं होता था जब तक कि ऑपरेटिंग सिस्टम भी विंडोज़ 2000 न हो। और हिन्दी के अधिकांश लोग बमुश्किल तमाम विंडोज़ 98 पर ही अटके हुए थे। विंडोज़ एक्सपी के बाद तो कोई कठिनाई ही न रही। जब त्रिनिदाद से बुलावा आया तब मैं विंडोज़ एक्सपी का भरपूर उपयोग कर रहा था। माइक्रोसॉफ्ट के लोग मुझे अपने हिन्दी उत्पादों का पहला प्रयोक्ता घोषित करते थे। त्रिनिदाद से बुलावा कब और कहां आया, ये भी सुनिए।

मैं माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित भाषाई कम्प्यूटिंग पर आधारित एक सेमिनार में भाग लेने के लिए भोपाल गया हुआ था। वे दिन बड़े मज़ेदार थे। कम्प्यूटर ज्ञाताओं को हिन्दी अधिक नहीं आती थी और हिन्दी-वादियों का कम्प्यूटर से भला क्या लेना-देना। हम चार-पांच गिने-चुने ही लोग थे, जैसे प्रो. सूरजभान सिंह, डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, डॉ. वी. रा. जगन्नाथन, हेमंत दरबारी, जो हर सभा-संगोष्ठी में दिख जाते थे। डॉ. वी. रा. जगन्नाथन के साथ मिलकर मैं जिस समय एक पॉवरपाइंट प्रस्तुति पर काम कर रहा था, मेरे मोबाइल पर त्रिनिदाद से डॉ. प्रेम जनमेजय का फोन आया— ‘दोस्त! त्रिनिदाद आना है। हम यहां सत्रह से उन्नीस बीस मई के बीच अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। सम्मेलन में एक पूरा सत्र हमने सूचना प्रौद्योगिकी पर रखा है। इन दिनों तुम्हारे खूब हल्ले सुनने में आ रहे हैं। आ जाओ डियर! एक धांसू कविसम्मेलन भी रखेंगे। भारतीय उच्चायोग के साथ हमारी यूनिवर्सिटी, जहां मैं पढ़ा रहा हूं, मिलकर ये आयोजन कर रहे हैं। हिन्दी विद्वानों और साहित्यकारों के नाम तय हो चुके हैं, तुम्हारा सारा खर्चा हम उठाएंगे। मैंने यहां तुम्हारी काफी हवा बना दी है कि बंदा बड़ी मुश्किल से मिलता है, बहुत बिज़ी रहता है, कविसम्मेलनों के ज़रिए बहुत कमाता है, ऐसे फोकट में नहीं आएगा। तो मैंने तुम्हारे लिए एक हज़ार डॉलर की अलग से व्यवस्था भी कराई है... लेकिन डियर, किसी को बताना मत’।

मैं मोबाइल ले कर कमरे से बाहर आ गया, कहीं वी. रा. जगन्नाथन ही न सुन लें, शायद जा रहे हों। अन्दर-अन्दर मैं बेहद खुश। एक फोन पर सब कुछ तय हो गया। बाहर से अन्दर आया, यह दिव्य समाचार पचा नहीं पाया। जगन्नाथन जी को बताया तो ज्ञात हुआ कि वे त्रिनिदाद जा चुके हैं। वहां हिन्दी पढ़ा चुके हैं। मैं और खुश, ये हुई सोने पर सुहागे वाली बात। त्रिनिदाद में अपना नक्शा जमा सकूं इसके लिए संयोग देखिए कि वहां का नक्शा मनुष्य शरीर में मेरे सामने ही बैठा है। मैंने प्रोफेसर से कहा— ‘प्रस्तुति तो अपनी लगभग तैयार है जगन्नाथन जी! आप ज़रा त्रिनिदाद के बारे में बताइए’। उन्होंने बताया-- ‘त्रिनिदाद के लोग हिन्दी फिल्मी गीतों के बड़े दीवाने हैं और एक म्यूज़िक चलता है वहां, चटनी’। उदारमना प्रोफेसर ने दिल्ली आने पर मुझे चटनी संगीत के छ: ऑडियो कैसेट दिए। अपनी कार में भरपूर सुने मैंने। क्रीस रामखेलावन की स्किनर पार्क की त्रिनिदाद स्टाइल चटनी, सॉसी रामरजी की चटनी, चटक-मटक चटनी, गुलारी के फूल, जानीया जानीया चटनी और बाबला कंचन की मानूं ना मानूं ना चटनी। साद्रो की अफ्रीकन रिद्म और नरेश प्रभू की ढोलक।
कुछ नमूने बताता हूं—

‘मैं तो जाऊंगी अकेला, मैं तो लागी तेरी हो, मैया, जाऊंगी अकेला’।

‘होलीया सताए रे, आए ना बलमवा। पहली बुलाव ससुर मोरे ऐले, लागेला सरमवा नजरिया घुमैले। आए ना बलमवा’।

‘ना रही सै छांव मंगलवा, झारू सै झारै अंगनवा। उसपे बैठे न बा, कैसे के मारो नजरिया। झारू सै झारै अंगनवा।

त्रिनिदाद में हवाई अड्डे से जिस कार में हम होटल की ओर जा रहे थे उसमें बज रहा था वही कैसेट। भोजपुरी चटनी संगीत-- ‘मैं तो जाऊंगी अकेला...’। मॉरिशस की हिन्दी से अलग प्रकार की हिन्दी। भोजपुरी और अफ्रीकन भाषाओं का मिलाजुला रूप। बेहद कर्णप्रिय, बेहद लुभावना।

जहां ठहराया गया वह कोई होटल नहीं था। कोई व्यक्तिगत गैस्ट हाउस था। नाम था उसका— मॉर्टन। भरपूर हरियाली से घिरी एक सहज सी दुमंज़िला इमारत, जिसके ऊपर टीन की छत थी। छत को चारों ओर से घेरे हुए थे ऊंचे-ऊंचे वृक्ष। सामने एक छोटा सा चर्च। मॉर्टन का बड़ा सा अहाता। अन्दर जाने के लिए लोहे का स्लाइडिंग डोर और लोहे की ही सीढ़ियां।

गाड़ियों से प्रतिभागियों का सामान उतर रहा था। मेरे साथ डॉयमण्ड पब्लिकेशन के स्वामी नरेन्द्र कुमार थे। मैंने उनसे कहा— ‘सामान की फिक्र छोड़िए, कमरा देखते हैं अपने लिए बढ़िया सा। ऊपर ठहरेंगे हरियाली का मज़ा लेंगे’। मैं लोहे की सीढ़ियों पर खटा-खट ऊपर चढ़ गया। नरेन्द्र जी आराम से आए। सामने बाल्कनी में आरामकुर्सी पर बैठी थीं हंगरी से आई हुई डॉ. मारिया नेज्येशी। मैं उनसे परिचित था। उनके सामने रखी मेज़ पर चाय की केतली थी और बिस्कुट की प्लेट। मिलकर खुश हुईं। प्यार से हम दोनों को बिठाया। स्वयं किचिन से कप लेकर आईं। ऐसा स्नेहिल व्यवहार था कि हम भला चाय के लिए कैसे मना करते। मैंने पूछा— ‘यहां कौन सा कमरा अच्छा है मारिया जी’? वे बोलीं— ‘ऊपर एक-दो कक्ष खाली हैं, लेकिन बताया गया है कि ऊपर सिर्फ महिलाएं रुकेंगी। मॉरिशस से डॉ. रेशमी रामधुनी आने वाली हैं और भारत से भी तो आपके साथ कुछ महिलाएं आई होंगी’।

इतना सुनने के बाद हमसे चाय न पी गई। धड़धड़ाते हुए नीचे आए। तब तक नीचे के सारे अच्छे कमरे लुट चुके थे। हमारे पल्ले पड़ा एक टुइयां सा नौ बाई नौ का कमरा। नरेन्द्र जी मेरे प्रकाशक थे और मैं उनका लेखक। मित्रता ऐसी की रॉयल्टी का मामला कभी आड़े नहीं आया। लॉयल्टी बनी हुई थी एक-दूसरे के प्रति। विमान में ही तय कर चुके थे कि एक साथ ठहरेंगे। हिस्से में आया ये नौ बाई नौ का दड़बा। मज़े की विडम्बना ये कि अन्य प्रतिभागियों की तुलना में हम दोनों के पास सामान ज़्यादा था। उनके पास किताबों के बड़े-बड़े बंडल और मेरे पास लैपटॉप, प्रोजैक्टर और तकनीकी तामझाम। उन दिनों एल.सी.डी. प्रोजैक्टर इतने आम नहीं हुए थे। मैं अपनी रिस्क पर जामिआ का प्रोजैक्टर लाया था।

कमरे में किताबों के गट्ठरों ने मेज़ का काम दिया और मेरे उपकरणों ने पलंग पर पार्टीशन का। स्थान कम था, हौसले बड़े थे। मैंने एक ही रात में अपना पॉवर-पाइंट प्रैज़ेंटेशन बनाया फिर नरेन्द्र जी के लिए दूसरा। सुबह-सुबह उन्हें प्रशिक्षित भी किया— ‘हिन्दी के प्रकाशक को हाई-टैक दिखना चाहिए नरेन्द्र जी! लीजिए, अब आपको कुछ नहीं करना है। बस, राइट ऐरो वाला बटन दबाते रहना है और बतियाते रहना है’। वे मुझ से अधिक उत्साह में थे।

मेरी अपनी प्रस्तुति पहले से ही लगभग तैयार थी। उसमें मुझे सिर्फ स्थानीय रंग भरना था। मॉर्टन के आसपास के कुछ चित्र अपने डिजिटल कैमरे से लिए। एक नज़ारा मेरे कैमरे को भाया। कंक्रीट और तारकोल की सड़क पर बीच-बीच में घास निकली हुई थी। मेरी प्रस्तुति को प्रस्थान-बिन्दु मिल चुका था। मैंने सोच लिया कि इच्छा-शक्ति का बीज यदि शक्तिशाली है तो नन्हा अंकुर कोमल धरती को ही नहीं सीमेंट और तारकोल को भी फोड़ कर बाहर आ सकता है।

आयोजन तीन दिन चलना था। उद्घाटन सत्र में त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री मौजूद थे। प्रधानमंत्री यद्यपि अंग्रेज़ी में बोले लेकिन अपने भाषण में उन्होंने भौजी, दादी मां, का उल्लेख कई बार किया। ‘निमकहराम’— उन्होंने बताया कि यह शब्द राजनीति में हमारे यहां भी चलता है।

भारतीय दल के नेता थे सांसद श्री जगदम्बी प्रसाद यादव। उद्घाटन सत्र में उनका लिखित भाषण कई पन्नों का था। काफी बुज़ुर्ग थे वे। अटक-अटक कर धीरे-धीरे पूरा का पूरा भाषण पढ़ दिया। वहां के श्रोता और प्रतिभागी उबासियां लेने लगे। जब बताया गया कि अब इस भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत किया जाएगा तो भारत से गए प्रतिभागियों की मूर्छित हो जाने की इच्छा हुई होगी— ‘लीजिए अब फिर से वही सुनिए’। बहरहाल, स्थानीय तरुणियों के कत्थक नृत्य से राहत मिली। सभागार में ऊपर से लटकाए हुए, पेपरमैशी से बने, हिन्दी वर्णमाला के कुछ अक्षरों ने बालिकाओं को आशीष दिया होगा।

भारत सरकार की तरफ से भेजा गया प्रतिनिधि मंडल वहां के पांच-सितारा होटल में ठहरा था। विदेश सचिव श्री जगदीश शर्मा और जगदम्बी जी के साथ कुछ अन्य सरकारी अथवा सरकार-सम्मत लोग थे। सारे के सारे सत्रों में उस प्रतिनिधि मंडल में से उद्घाटन समारोह के बाद इक्का-दुक्का लोग ही दिखे लेकिन त्रिनिदाद में भारत के उच्चायुक्त श्री वीरेन्द्र गुप्ता लगभग हर सत्र में मौजूद रहे।

मेरी गुरुआनी डॉ. निर्मला जैन ने भाषा के सामाजिक पहलुओं पर चर्चा की तो श्री कन्हैया लाल नन्दन ने हिन्दी की विभिन्न विधाओं का परिचय दिया। डॉ. मधुरिमा कोहली का पर्चा दिलचस्प था। उन्होंने बताया कि विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी को सीखने-सिखाने में क्या परेशानियां आती हैं। लंदन से आए पद्मेश ने हिन्दी और अन्य विदेशी भाषाओं के लिए शिक्षण-प्रविधियां बताईं।

हमारा सूचना प्रौद्योगिकी वाला सत्र हुआ तो उसके लिए दरकार थी एक अदद प्रोजैक्टर की। सभागार में पता नहीं कौन सा प्रोजैक्टर लगा था जो अंग्रेज़ी कार्यक्रम दिखाओ तो चलता था, हिन्दी आते ही बन्द हो जाता था। भला हुआ जो मैं अपना, यानी जामिआ का, प्रोजैक्टर ले गया। वही सी-डैक के हेमंत दरबारी के काम आया, उसी पर डॉ. कुमार महावीर ने अपनी प्रस्तुति दिखाई और उसी पर नरेन्द्र जी ने लैप-टॉप का इकलौता बटन दबा कर हिन्दी पुस्तकों के झण्डे गाड़ दिए।

एक सत्र हुआ जिसका शीर्षक था ‘हिन्दी ऐवरी व्हेयर’, इसमें डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण ने जापान, मारिया ने हंगरी, अनिल शर्मा और तेजेन्द्र शर्मा ने लंदन (यू.के.), रेशमी रामधुनी ने मॉरिशस और अनुराधा जोशी ने गयाना में हिन्दी शिक्षण के अपने-अपने अनुभव बताए। एक पूरा सत्र तुलसी और कबीर के नाम था जिसमें डॉ. नरेन्द्र कोहली, गोविंद मिश्र, सूर्यबाला और डॉ. पुष्पिता ने बताया कि किस प्रकार मध्यकालीन कवियों की रचनाओं ने कैरेबियन देशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। चटनी गीतों में नन्दलाल बेहद लोकप्रिय हैं—‘दधीया मोरी लै ले हो लै ले नन्दलाल’। ‘नन्दलाल’ के उच्चारण में अंग्रेज़ी की ध्वन्यात्मकता ज़रूर महसूस की जा सकती है।

डॉ. सिल्विया मूडी कुबला सिंह इस समारोह की मुख्य आयोजिका थीं। पतली-दुबली, छरहरी सौम्य-शांत स्वभाव की विदुषी। कविताएं लिखती थीं, पर अंग्रेज़ी में। प्रेम ने बड़े प्रेम से कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने में उनकी सहायता की। वाणी इतनी मधुर की प्रेम ने उनका उपनाम ‘कोकिला’ रख दिया। श्यामलवर्णी मूडी को अपना नाम ‘कोकिला’ बहुत पसन्द आया। डॉ. दिविक रमेश और गिरीष पंकज की रचनाएं उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के लिए मांगी। वे सब का भरपूर ध्यान रखती थीं।

यादों में बहुत चीज़ें घुमड़ रही हैं। प्रो. हरिशंकर आदेश का आश्रम, उनका पुस्तकालय, जहाजी चालीसा का विमोचन, चंका सीताराम का भव्य महल, समंदर के किनारे उनका शानदार बंगला, लहरों का शोर, मन्दिर की घण्टियां और अज़ान के स्वर, मनोहारी समंदर के तट, स्थान-स्थान पर क्रिकेट खेलते बच्चे, कमल के फूलों से सम्पन्न बॉटेनिकल गार्डन, रंग बदल कर लाल हो जाने वाले पक्षी, बाबा मौर्या का आम के पेड़ पर चढ़ना, नारियल का पानी, प्रतिभागियों की पिकनिक, चंका सीताराम के स्विमिंग पूल के किनारे विदाई समारोह के समय हल्की सी रिमझिम, न थमने वाले नृत्य, नरेन्द्र जी का पुस्तक विक्रेता, जर्जर हिन्दी भवन, दशहरा मैदान की पालकी, दो मंज़िला भवन जितनी ऊंची विवेकानंद की मूर्ति, प्रेम के घर के पिछवाड़े आम के पेड़, उनके दो प्यारे-प्यारे लड़ाकू पिल्ले, सिंह साहब की गार्मेंट्स की फैक्ट्री, ‘पिच लेक’ का काला दलदल. समुद्र के बीच बने मन्दिर पर लगे रंग-बिरंगे झंडे, बड़े-बड़े झुरमुटों में नन्ही-नन्ही चिड़िया, आकाश के बदलते रंग, उच्चायुक्त वीरेन्द्र गुप्ता के वृहत सरकारी निवास पर संगीत की महफ़िल, संदलेश और भारद्वाज जी की रैड वाइन और न जाने क्या-क्या।

बस एक बात और बताकर अपना फ़साना समाप्त करता हूं। अंतिम दिन हुए कवि-सम्मेलन में जहां लगभग सभी प्रतिभागियों ने अपनी कविताएं सुनाईं, संचालन मैंने किया। और अपनी शरारती कविताई से बाज़ नहीं आया। मैंने मंच पर बैठे-बैठे कुछ पंक्तियां गढ़ीं और श्रोताओं के कानों में जड़ दीं। मुझे ठहाकों और तालियों की ध्वनि अबतक सुनाई दे रही है। वे पंक्तियां थीं---
गुप्ता जी के प्रेम ने ऐसा किया कमाल,
सात-समंदर पार भी हिन्दी करे धमाल।
हिन्दी करे धमाल, तीन दिन बीते ऐसे,
जैसे भरे बज़ार, बीत जाते हैं पैसे।
कह चकरू चकराय, धन्य अपने जगदम्बी,
जब वे बोले, प्यारे मित्रो, सोए हम भी।

स्वर्ग में जगदम्बी जी भी मुस्करा रहे होंगे। न मुस्कराएं तो क्षमा करें।

ओहो! ये तो अपन त्रिनिदाद में ही अटक कर रह गए। टोबैगो के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं, जहां प्रकृति में चुम्बक होती है। चलिए फिर कभी सही।


द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...