Monday, March 06, 2017

खामोशियों के दरमियान

झक्क सफ़ेद कैनवास की 
तानी चादर में 
चारकोल से खींची 
कुछ आड़ी तिरछी लकीरें 
और, उनमे उभरता तुम्हारा अक्स 
घेरदार फ्रॉक में तुम मुझे बगुला लगती थी 

अभी भी याद है मुझको 
पुराने मकान की ऊपरी छत 
और वहां एक बालकनी 
जहाँ पर रोज़ मैं बैठा सपने बुनता रहता था 
बस वहीँ मोड़ के नुक्कड़ पर 
इमली का पेड़ बूढा सा 
वहीँ नीचे उसी के 
रंग बिरंगी पतंगियों से सजे तांगे 
गोटेदार कपड़ों से पाती बग्घियां 
और, घोड़ों की रानों पर सजे गुलाबी फुलरे 
वहां नीचे से ही बाज़ार शुरू होता था 
जहाँ अक्सर-
रहमान चाचा की बग्घी खड़ी होती थी 
मैं वहां रोज़ यही मंजर देखा करता 
वही उस भीड़ में ढुढती मेरी नजरें 
अक्सर मायूस हुआ करती थीं 

चंद भर लोग ही इसके गवाह होते 
मकान की छत / बालकनी / रहमान चाचा की बग्घी / घोड़ों की रानों में लगे गुलाबी फुलरे /
गोटेदार कपड़ों से पाती बग्घियां-
और तुम.... 
सभी समां चुके हैं झक्क सफ़ेद कैनवास में 
तारपीन के तेल की खुशबु से अभी जिन्दा हैं 
सपने गड्डमड्ड हो टूटकर बिखरते हैं 
कई रातों से मैं सोया नहीं हूँ।

4 comments:

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