Wednesday, February 27, 2013

’रंग जिन्दगी की तरह होते हैं’

’वास्तव में कला मन की वह अभिव्यक्ति है जिससे यथार्थ की धारा फूटती है । इस अभिव्यक्ति  के अलग अलग माध्यम हैं, कला एक ओर सौंदर्य का आयाम है, वही दूसरी तरफ चेतावनी का भी... ! वह सहज ढंग से मन पर अपना असर छोड जाती है । साहित्यकार समाज को शब्दों में व्यक्त करता है और रंगो को कलाकार कल्पना और यथार्थ का सृजनात्मक रुप देकर बहुत कुछ अनकहा कहकर हमें आगाह कर देता है...’

रंगों से अजीब-सा रिश्ता है मेरा...जब कोई नहीं होता मेरे इर्द-गिर्द, तब भी ये साथ होते हैं, सुख में और दुख में भी। असल में रंग जिंदगी की तरह होते हैं... इनसे मिलकर जो तसवीर उभरती है, वह जेहन में तमाम पलों को जिन्दा कर देती है। जो कभी किसी  के हिस्से के थे और नहीं भी.. ! कुछ खामोश रेखाएँ भी हैं जो खामोश रहकर भी खामोश नहीं हैं। व्यथा है इन रेखाओं में, उदासी है, एक अर्थहीन पीड़ा, संघर्ष और स्मृतियों के बीज भी...

असल में मेरे ऑब्जेक्ट मेरे करीबी  हैं.. आम जगहों के आम लोग..कुछ बेहद खास..हाँ, उनके अन्तःकरण में घुसने की कोशिश भर है..और उन्हें  आकार ध्रंग  देकर एक यथार्थवादी चित्रण करने की कोशिश३असल में अपनी कृतियों में सार्थकता तलाशता हूँ.. एकरसता क्लासिक सिनेमा की तरह, या गढने की कोशिश...

      वास्तव में मेरी कला ऑब्जर्वेशन पर आधारित है...जो देखता हूँ महसूस करता हूँ या यूँ कहें कि जीता हूँ या जो अनकहा रह गया हो उसे रंगने  की कोशिश...ज्यादातर लाइफ स्कैप्स । इनमें प्रयोग भी शामिल हैं..सब्जेक्ट की जरूरतों के हिसाब से उसे अप्लाई करता हूँ..इनका ट्रीटमेंट पूरी तरह अमूर्त तो नहीं..हाँ, उसके करीब कह सकते हैं। और कल्पनाएँ बिलकुल सपाट तो नहीं, पर साफ नजर आती हैं। कुछ प्रिय रंग हैं, जिन्हें हर बार इस्तेमाल करने का जी करता है- जिनमें पीला गेरुआ मुझे जमीनी सुकून देता है तो नीला अवसाद व उसके पार जाने का सुख और सिंदूरी गजब की ऊर्जा एवं पारंपरिक, संस्कृति एवं सभ्यता।  धूसर एवं काला से मुझे आधुनिक एवं समकालीन होने का बोध होता है।

       मेरे सब्जेक्ट क्रमबद्ध चलते हैं, जिनमें उत्सव, चिड़ियाँ, पत्ते, रंगीन पतंगियाँ, महिलायें, चेहरे, मुखौटे, गुस्ताख आँखें, अस्त-व्यस्त कपड़े, बेवाक लड़कियों जैसे सौन्दर्य से भरा-पूरा संसार है, जिसमें तरह-तरह के लोग और चीजें बसती हैं। कुछ अलग तरह के लोग और भी हैं, जिनमें बाँसुरीवाला, कुल्फीवाला, लट्टू, खिलौनेवाला बैन्डमास्टर, ढोल-ताशे वाला... जो अपनी-अपनी कहानी बयां करते हैं..जिनमें संघर्ष है, बेपनाह लापरवाही, अल्लहड़पन और गम्भीरता भी।

      चित्रकला में शुरुआत अप्रत्याशित रही। बचपन से ही शौक था। अजीब-सी बैचैनी और आकर्षण था कला को लेकर..जो खींचता चला जाता। इसे गम्भीरता से समझने में थोड़ा वक्त लगा। तकरीबन दो दशक पहले इलाहाबाद प्रवास के दौरान, इलाहाबाद संग्रहालय में चित्रकार श्री बालादत्त पाण्डे जी का सान्निध्य मिला, उनसे चित्रकला की बारीकियाँ, ढंग और कला का असल मतलब, एक दिशा उनसे मिली। तभी यह अहसास हुआ कि बिना कला के जीवन अब सहज नहीं है। तैल, एक्रेलिक, वाटर कलर, ग्राफिक्स चारकोल, मिक्सड मीडिया और कम्पयूटर ग्राफिक्स इत्यादि मेरे माध्यम हैं, तैलीय माध्यम में काम करने में बड़ा सुकून मिलता है, अनुप्रयोग जारी रहेंगे।

-विजेन्द्र एस विज

(नव्या के (फरवरी-अप्रैल-2013 अंक में प्रकाशित)


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