Tuesday, October 02, 2007

गजल-बीती-एक अदब की शाम- एक शार्ट फिल्म की कोशिश-एक रपट मुनव्वर राना पर


किसी को घर मिला हिस्से मे, या कोई दुकां आयी,
मैं घर मे सबसे छोटा था, मेरे हिस्से मे मां आयी।

23 सितंबर 2007, बडी अदब और तहजीब से सराबोर शाम थी.. कृभको सभागार नोयडा मे कैसे गुजरी पता ही नही चला. कई दिनों से हम सब तैयारी मे लगे थे..समय कम था. पर सब ठीक हुआ.. और आनेस्ट इंटरटेनमेंट ने अपने पहले प्रोग्राम की सफलता का झंडा लहरा ही दिया.
सभी ने अपनी-अपनी जिम्मेवारी बडी बखूबी निभाई. जो मेरे हिस्से था वह यहाँ आप सभी से बाँट रहा हूँ.

गजल-बीती एक मुशायरा ना होकर भी अधिकांश मुशायरों और एक गजल संध्या से ज्यादा बेहतर था. कार्यक्रम मुनव्वर राना साहब की अदब पर था... गजल को कोठो- कोठियों, महलो और हरम के बीच से निकाल कर आम आदमियों के बीच पहुचाने का श्रेय जिन शायरों को जाता है..राना साहब उनमे से एक हैं.

“खुद से चलकर नहीं ये तर्जे सुखन आया है, पांव दाबे हैं बुजुर्गों के तो ये फन आया है..”




उन्होने अपनी बेहतरीन रचनायें सुनाकर श्रोताओं को सराबोर कर दिया..कुछ शेर मैं यहाँ दे रहा हूँ..
“सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छुपाती है,
जैसे दुल्हन कि सिसकियों को शहनाई छुपाती है।
चाहती है कुछ दिन और माँ को खुश रखना,
ये बच्ची कपङों से अपनी लम्बाई छुपाती है।

उनकी यह रचना भी सराही गई-

ये सर बुलंद होते ही शाने से कट गया,
मैं मोहतरम
हुआ तो जमाने से कट गया।
इस पेङ से किसी को शिकायत नहीं थी,

यह पेङ तो बीच में आने से कट गया।


उन्हे सुनना गुलशन की सैर करने जैसा था..जिसमे अलग-अलग बू के कई रंग खिले हैं.
उन्होंने सिंधु नदी पर अपनी प्रसिद्ध कविता भी पढी...

“यह नदी गुजरे जहाँ से समझो हिन्दुस्तान है”

और माँ कि महानता को इन शब्दों मे व्यक्त किया।

“बुलंदियों का बङे से बङा निशान हुआ,
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान हुआ”

जिन्दगी भर हमने यूँ खाली मकां रहने दिया,
तुम गये तो दूसरे को कब यहाँ रहने दिया।

बनावटी और खोखले व्यवहार पर उन्होने लिखा है...

“मैं फल देखकर लोगों को पहचानता हूँ,
जो बाहर से ज्यादा मीठे हों, अंदर से सङे होते हैं।“


अभिनेता राजबब्बर ने भी राना साहब की कुछ गजलें अपने खास अभिनय अन्दाज मे पढी..




”मियां मैं शेर हूँ शेरों कि गुर्राहट नहीं जाती,
लहजा नर्म भी कर लूं तो झुंझलाहट नहीं जाती”।

कवि प्रदीप चौबे की कविअताओं से हंसी के ठहाके लगते रहे..





हसन काज़मी साहब ने बेहतरीन शेर पेश कर अपनी उपस्थिती दर्ज कराई, अपने इस शेर से उन्होने लोगों तक अपनी बात पहुंचाई....


”क्या जमाना है कभी यूं भी सजा देता है,
मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है.

“गांव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी,
हमको मिट्टी के दिये की रोशनी अच्छी लगी”

अलीगढ से आयीं युवा शायरा मुमताज नजीम की गजलों ने श्रोताओं को मदहोश कर दिया, उन्होने कहा..
“तेरा हुक्म हो तो तमाम शब मैं तेरे सिरहाने खडी रहूं,
अगर तू कहे तो जिन्दगी तेरे पायताने गुजार दूं ।


“जब से इकरार कर लिया हमनें,

खुद को बीमार कर लिया हमनें,

अब तो लगता है जान जायेगी,

तुमसे जो प्यार कर लि
या हमने ।

मदन मोहन दानिस की रचनाओ ने भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया..

कार्यक्रम के संचालन की बागडोर डा. कुमार विश्वास जी के हाथों मे थी...उनका सफल संचालन और काव्य पाठ सुनने देखने का मौका पहली बार मुझे मिला..बडा अदभुत अनुभव रहा.




प्रोग्राम के डिजाइन से सम्बन्धित कार्य मेरे जिम्मे था.. आमंत्रण पत्र, बैकड्राप, मिमेंटो और एक शार्ट फिल्म.. जिसके लिये अपनी एक कलाकृति चुनी..और काफी हद तक सफल रहा. कभी सोचा भी नहीं था कि राना साहेब के इस प्रोग्राम पर मेरा एक अहम किरदार होगा.. बडे सम्मान की बात है मेरे लिये.. कि मैने उन पर काम किया. रिसोर्स कम थे.. और समय भी... 3 दिन की मेहनत और आखिरी 8 घंटे का काम करना काफी सफल रहा.. प्रोग्राम शुरू होने से मात्र 30 मिनट पहले डा. कुमार को यह फिल्म सौपी गयी..



9 मिनट और 38 सेकंड की यह फिल्म डी.वी.डी. क्वालिटी की है. जिसे प्रोजेक्टर पर देखा जा सकता है. इसे यहाँ दे रहा हूँ..उम्मीद है आप सभी को यह प्रयास पसन्द आयेगा.



-विज
www.vijendrasvij.com

9 comments:

Sanjeet Tripathi said...

भई वाह!!

राणा साहब के कायल तो हम तब से हो गए है जब से पहली बार उन्हें पढ़ा था।

दिली तमन्ना है कि उनके संग्रह "मां" को पढ़े पर वह हमारे शहर में कहीं उपलब्ध नही। लखनऊ के एक दो दोस्तों को कहा था पर पता नही उन्हें मिली नही या फ़िर उन्होने ढूंढा ही नही। देखिए कब मिल पाता है हमे यह संग्रह!
कुछ भी कहिए राणा साहब ने "मां" पर जो कुछ भी लिखा है वह बहुत अपना सा लगता है।

शुक्रिया इस विवरण के लिए!!

Udan Tashtari said...

विज

आनन्द आ गया पूरी रपट पढ़कर और सोने पर सुहागा यह राना जी पर जो फिल्म बनाई. आवाज डॉ कुमार विश्वास की है?

मुन्नवर जी के रायबरेली, लखनऊ और कलकत्ता आदि स्थानोम पर रहने वाली जानकारी निश्चित मेरे लिये नई थी.

आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति का.

यह किताब बाजार में आ गई है क्या?

अभिनव said...

भाई वीरेन्द्र विज जी,
आपकी प्रशंसा हेतु शब्द नहीं मिल रहे हैं अतः पसंद काऊंटर खटखटा दिया है। आपके चित्र बहुत अच्छे हैं, जो फिल्म आपने दिखाई उसे दो बार देखा है और आपकी पोस्ट भी दो बार पढ़ी है पूरी की पूरी। इतनी अच्छी जानकारी के लिए अनेक साधुवाद।

Manish Kumar said...

बड़ी चुनिंदा शायरी छांटी है आपने कार्यक्रम से। बहुत मजा आया पूरी रपट को पढ़ कर। धन्यवाद।

Pramendra Pratap Singh said...

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति है। बधाई

वीडियों काफी लम्‍बा है इसे फ्री अवर में देखना ही ठीक रहेगा।

Unknown said...

Vij,

Aap ki koshish bhut akarshak hai.mai chahunga ki aap isse hamari 'Katha Ras Film Screening' pe shamil kare.

Bhut acheye

Vijji Panangat

अनूप भार्गव said...

मुनव्वर राना मेरे प्रिय शायरों में से रहे हैं । एक सफ़ल कार्यक्रम के लिये बधाई और एक सुन्दर रपट के लिये धन्यवाद ।

Sajeev said...

अगर आपने यह लिंक नही भेजा होता तो मैं शयद वंचित हो जाता इस सुंदर विडियो को देखने से , शानदार प्रस्तुति है विज, आपकी एक और विधा का कायल होना पढ़ा आज, कवरेज भी बहुत अच्छा है, बधाई

अफ़लातून said...

बहुत सुन्दर फिल्म । टिप्पणी आपके स्वर में है?जिसकी भी आवाज़ है, खूबसूरत है। हार्दिक बधाई।