Friday, July 06, 2007

अक्सर, मौसमो की छत तले

किसी मौसम में
एक इतिहास
मैं भी रचना चाहता था...

कभी बारिश की
बून्दों की टपटप के बीच
तो कभी,
हरी, पीली, बसंती
सरसों के साथ....
और,
कभी लपकाती हुई तारकोली
दिल्ली की सड़कों में
आवारा बन....

हाँ,
एक मौसम चला था
मेरे साथ भी,
कुछ पल....
सर्द कोहरे की धुन्ध मे
लिपटा हुआ....

अलसाई हुई,
सुबहो के साथ
एक दिन,
करवट बदली थी इतिहास ने.....

अपनी कँपकपाती हुई
उंगलियों के बीच फँसी
उस अधजली सिगरेट के
दो कश लिए थे...बस
तभी,
दूर कहीं कोहरे में गुम
उसकी...
सफेद आकृति ने
करीब आकर साँस ली...
और,
कर गयी स्तब्ध....

ठगा सा देखता रहा
उसे, यूँ ही....
उंगलियों की जलन ने
आभास कराया मुझे,
मेरे अपने
वहाँ होने का....

कितने मौसमो की उम्र
साथ लिये...
जिये थे वह
हसीन से लम्हे
मैने...

अब तो,
पीले पत्तों का मौसम
जा चुका है.....
बावजूद इसके....
कभी बन ना सका मै,
उसके प्रेम का
कोई भी एक हिस्सा...

और,
दूर खड़े देखता रहा
बस यूँ उसे,
किसी और का इतिहास बनते....

अक्सर,
मौसमो की छत तले
आज भी वह,
बेहद याद आती है......

-विज
( नवम्बर 2004. मे लिखी गयी एक पुरानी कविता)

10 comments:

Pratyaksha said...

बढिया ! छुपा कर रखी थी कहाँ इसको :-)

Sanjeet Tripathi said...

"और,
दूर खड़े देखता रहा
बस यूँ उसे,
किसी और का इतिहास बनते...."

बहुत बढ़िया,
शुक्रिया!!

राकेश खंडेलवाल said...

बनाना चाहता था स्वर्ग तक सोपान सपनों का
मगर चादर से ज्यादा पांव फ़ैलाये नहीं जाते.

खूब लिखा है विह

Udan Tashtari said...

वाह विजेन्द्र, बहुत ही कोमल रचना है, दिल को छूती हुई. बधाई.

सुनीता शानू said...

विजेन्द्र भाई अच्छी कविता है प्रेम और समर्पण का आभास दिलाती हुई और साथ ही कुछ वो पक्तियाँ जो खो जाती है अपने आप में जैसे प्यार कभी मरता नही यादो में जिन्दा रहता है...

ठगा सा देखता रहा
उसे, यूँ ही....
उंगलियों की जलन ने
आभास कराया मुझे,
मेरे अपने
वहाँ होने का....

सुनीता(शानू)

विजेंद्र एस विज said...

@शुक्रिया प्रत्यक्क्षा जी..कहाँ छुपा कर रखी थी..मेरे खयाल से आपने जरुर पढी होगी.
@धन्यवाद संजीत भाई..आपको कविता के खयाल अच्छे लगे.
@राकेश जी..आपका टिप्पणी देने का अन्दाज निराला है.आपकी कविताओ जैसी खूबसूरत कोमलता है इनमे..बहुत बहुत शुक्रिया.
@समीर जी.. यह रचना भी आपके दिल को छू गयी..उसकी खुशी मुझे हो रही है.शुक्रिया.
@सुनीता जी..आपने कविता की गहराईयो को समझा सराहा..उसके लिये दिल से शुक्रिया, आभार..
और मेरे उन तमाम सभी दोस्तो को भी शुक्रिया जिन्हे यह रचना पसन्द आयी उन्होने पढी.
धन्यवाद के साथ
आपका सभी का,
-विज

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत ही अच्छी कविता। एक दूसरी दुनिया में ले जाती है आपकी ये कविता। एक और बात। कविता कभी पुरानी नहीं होती और ख़ासकर ऐसी कविता

कंचन सिंह चौहान said...

खूबसूरती से लिखी गई एक भावुक सी रचना...........! अति सुंदर....!

कंचन सिंह चौहान said...
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प्रवीण परिहार said...

संगीता जी के ब्लोग से आपके ब्लोग का लिंक मिला, बहुत ही अच्छी रचनाएं करते है आप फिर चाहे वो रंगो से हो या शब्दों से। बहुत बढिया।