Thursday, June 03, 2010

उन पांच मिनटों ने बदली मेरी ज़िन्दगी


 A german writer and artist was fascinated by a bollywood film to such extent that she learned language and translated a literary book to German language and got it published in Germany.



ਇੱਕ ਜਰਮਨ ਲੇਖਿਕਾ ਹਿੰਦੀ ਫਿਲਮ 'ਮੁਹੱਬਤੇਂ' ਵਿੱਚ ਅਮਿਤਾਭ ਬੱਚਨ ਤੋਂ ਇੰਨੀ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਹੋਈ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਹਿੰਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਸਿੱਖਕੇ ਅਮਿਤਾਭ ਬੱਚਨ ਦੇ ਪਿਤਾ ਸ਼੍ਰੀ ਹਰਿਵੰਸ਼ ਰਾਏ ਬੱਚਨ ਦੀ ਪੁਸਤਲ 'ਮਧੂਸ਼ਾਲਾ' ਦਾ ਜਰਮਨ ਵਿੱਚ ਅਨੁਵਾਦ ਕਰ ਕੇ ਪੁਸਤਕ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਰਵਾ ਦਿੱਤਾ.

55 वर्षीय क्लाउडिया ह्युफ़्नर (Claudia Hüfner) 
एक स्वतन्त्र लेखिका और कलाकार हैं।


एक जर्मन लेखिका ने केवल पांच मिनट के लिए अमिताभ बच्चन को पहली बार फ़िल्म मोहब्बतें में देखा, और उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने भारत के बारे में तमाम जानकारी जुटा डाली, हिन्दी सीखी, अमिताभ बच्चन से परिचय किया और उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन जी की पुस्तक 'मधुशाला' का जर्मन भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित करवाया। पढ़िए पूरी कहानी उन्हीं की ज़ुबानी।

भारत के बारे में मुझे केवल इतना ही पता था कि इस नाम का कोई देश है। एक स्थानीय पत्र के लिए स्वतन्त्र लेखिका और कलाकार के तौर पर काम करने के कारण कभी कभी वहां होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बारे में जानना पड़ता था, पर उसके अलावा मेरी इस देश में कभी खास रुचि नहीं रही।

पर 2005 में यह सब बदलने लगा जब बॉलीवुड का तूफान जर्मनी में आने लगा। ARTE टीवी चैनल पर पहली बार हिन्दी फ़िल्म 'कभी खुशी कभी गम' जर्मन उपशीर्षकों के साथ दिखाई गई। हालांकि मुझे उपशीर्षकों के साथ फिल्म देखना अच्छा नहीं लगता क्योंकि पूरा ध्यान तो पढ़ने में ही चला जाता है, पर फिर भी जिज्ञासा के चलते मैं फिल्म देखने बैठ गई। फिल्म में रंग, संगीत, नाच गाना और यूरोप की तरह दिखने वाले दृश्य मुझे भाए, मुझे आश्चर्य भी हुआ पर बाद में पता चला कि यह स्कॉटलैण्ड की शूटिंग थी। कलाकार तो मेरे लिए बिल्कुल नए थे।

एक महीने बाद गर्मियों में एक अन्य चैनल को इस बाज़ार का आभास हुआ और उसने इसी फ़िल्म को जर्मन में डबिंग करके दोबारा प्रसारित किया। इस बार मैं पूरी फिल्म देखना चाहती थी। पर पता नहीं क्यों, वही तमाम चमक दमक के बावजूद मैं फिल्म को झेल नहीं पाई। मैं फिल्मों की कोई खास शौकीन भी नहीं हूं, जर्मन या हॉलीवुड फ़िल्मों की भी नहीं। पर उस चैनल पर तो जैसे भारतीय फिल्मों का भूत चढ़ गया हो। एक के बाद एक वह उस सपनों की फैक्ट्री की फिल्में दिखाने लगा, वो भी शाम के समय, जब सब लोग टीवी के सामने जुटे बैठे होते हैं। शायद यह ज़रूरी भी था, क्योंकि ये फ़िल्में बहुत लंबी होती थीं। ऊपर से ढेर सारे विज्ञापनों के साथ एक तिहाई समय और बढ़ जाता था। अगर ठीक समय पर न शुरू करते तो दर्शक को रात के तीन बजे ही सोने को मिलता। और आश्चर्यजनक बात, सभी फिल्में शाहरुख खान की होती थीं। शायद चैनल का मालिक शाहरुख का बहुत बड़ा प्रशंसक होगा। मैंने एक दो बार फिर से हिन्दी फिल्म देखने की कोशिश की, पर असफल। बॉलीवुड को झेलना मेरे बस की बात नहीं थी।

फिर शरद ऋतु आई, और अगली फिल्म थी मोहब्बतें। मेरा तो फिल्म न देखने का पक्का इरादा था, पर रात के ग्यारह बजे बोरियत के चलते रिमोट से चैनल पलट रही थी तो पांच मिनट के लिए आंखें इस फ़िल्म पर टिक गईं। इस बार भी खान साहब ही थे पर कहानी बेहतर थी। और वहां एक नया चेहरा भी था, क्या नाम था?? हां, अमिताभ बच्चन। आकर्षक। दो पुरुषों के बीच लड़ाई, पर बहुत दबी दबी, रोमांचक और सूक्षम।

अगले दिन फिल्म को दोहराया गया। इस बार मैंने यह चार घंटे की फिल्म रिकार्ड की। फिर से वही आकर्षण। मैंने नाम को गुगलाया। हां, भारत के एक महानायक। मैंने तो अभी उनके कई चेहरों में से केवल एक चेहरा देखा था। ये पांच मिनट मेरी ज़िन्दगी बदल देंगे, उस समय मुझे नहीं पता था, पर मैंने इस देश में रुचि लेनी शुरू कर दी। वहां की संस्कृति, धर्म, राजनीति। टीवी में भारत के बारे में कोई भी वृतचित्र नहीं छोड़ा। मैंने बच्चन को लिखा, पर कोई उत्तर नहीं। आखिर वे मेगास्टार हैं, हर कोई उनसे संपर्क साधना चाहता होगा। पर अफसोस था कि डबिंग के चलते मैं फिल्म में उनकी असली आवाज़ नहीं सुन पाई। इसलिए मैंने ज़िन्दगी की पहली हिन्दी फ़िल्म की डीवीडी खरीदी। जैसी उम्मीद थी, हिन्दी भाषा वैसी ही अद्भुत लगी। लगा जैसे मैं घर वापस आ गई हूं। मुझे शुरु से ही कलाकारों और कहानी की बजाय यह भाषा आकर्षित कर रही थी। तो क्या अब मुझे हिन्दी सीखनी होगी? मेरी उम्र में भी कई लोग नई भाषाएं सीखते हैं, हालांकि स्कूल में लैटिन, फ़्रेंच और अंग्रेज़ी सीखने के बाद मैंने किसी और भाषा में पांव न फंसाने की कसम खाई थी। मेरी दिलचस्पी गणित में है और मैंने कंप्यूटर विज्ञान में डिग्री पूरी की है। पर हिन्दी? चलो कोशिश करते हैं।

एक प्राथमिक पुस्तक लेकर मैंने तीन महीने तक देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा सीखी। उसके बाद मैं भारत और हिन्दी भाषियों के संपर्क में आना चाहती थी और बहुत कुछ जानना चाहती थी। पर यह कैसे सम्भव होता? स्कूल के बाद तो मेरा अंग्रेज़ी भाषा के साथ संपर्क भी टूट गया था। मैंने इंटरनेट में कई फोरमों पर कोई अच्छा संपर्क ढूंढने की बहुत कोशिश की। चार सप्ताह बाद मुम्बई से लगभग मेरी उम्र के श्याम चन्द्रगिरी के साथ परिचय हुआ। उनके साथ रोज़ चैट करते समय में कई शब्दकोष खोलकर बैठती थी। पहले पहले हम दार्शनिक या धार्मिक विषयों पर बात करते थे। पर धीरे धीरे यह मैत्री घनिष्ठ हो गई। इसी दौरान आर्ट-वांटेड (artwanted) नामक साइट द्वारा भी कई भारतीय कलाकारों से मेरा परिचय हुआ। कई लोगों को मेरे साइट में मेरे बनाए गए अमिताभ बच्चन के स्केच देख कर हैरानी हुई। फिर एक दिन एक  चित्रकार विजेंद्र एस विज   ने अमिताभ बच्चन जी द्वारा उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन के बारे में एक व्याख्यान के चित्र भेजे। इस तरह मेरा भारत के एक लोकप्रिय कवि से परिचय हुआ। मैं भी उस समय इतनी हिन्दी सीखने के बाद उसमें कुछ करना चाहती थी। फिर ख्याल आया कि क्यों न उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'मधुशाला' में से कुछ छन्दों का अनुवाद किया जाए? कुछ छन्द जब मैंने अपने भारतीय दोस्तों को सुनाए तो वे पूरी पुस्तक का अनुवाद करने पर ज़ोर देने लगे। लेकिन उसे यहां पढ़ेगा कौन। मैंने ग्यारह प्रकाशनों से इसके बारे में बात की। उनमें से सात प्रकाशनों को यह प्रोजेक्ट रोचक लगा। मुझे भी कविताओं का अनुवाद करने और उनके पीछे की सोच जानने में मज़ा आने लगा। पर इससे पहले कॉपीराइट के बारे में सोचना भी ज़रूरी था, ताकि जर्मनी में कोई और इसे प्रकाशित न कर सके। तो एक बार फिर ज़रूरत पड़ी अमिताभ बच्चन से संपर्क साधने की। लेकिन इस बार उनके सचिवालय द्वारा संपर्क करने की सोची। कई बार लिखा, कोई उत्तर नहीं। फिर एक ईमेल आई कि अमिताभ जी व्यस्त हैं पर समय मिलने पर उन्हें आप के बारे में बताया जाएगा। कई सप्ताह गुज़र गए। मेरे मित्र श्याम ने भी मुम्बई में उनके दफ़्तर जाकर मुद्दे को आगे बढ़ाने की कोशिश की। पर फिर वही उत्तर।

तीन महीने बाद हम दोनों बहुत तंग आ गए। एक दिन मैं और श्याम दोनों ही उनकी सेक्रेटरी रोज़ी सिंह से संपर्क कर रहे थे। इधर मैं ईमेल द्वारा उन्हें यह काम छोड़ने और कोई और कवि ढूंढने की धमकी दे रही थी और उधर श्याम उनके पास जाकर कह रहे थे कि यह जर्मनी को नीचा दिखाना है। डेढ घंटे बाद रोज़ी सिंह की ईमेल आई कि मेरा पत्र और मेरे द्वारा बनाया हुआ हरिवंशराय बच्चन जी का चित्र उनके बॉस को दे दिया गया है। एक दिन बाद अमिताभ जी की ईमेल आई कि वे मेरे काम का कुछ अंश देखना चाहते हैं। मैंने तुरन्त यह कर दिया। फिर एक महीने बाद उनकी दूसरी ईमेल आई जिसमें उन्होंने मुझे इसे प्रकाशित करने की अनुमति दी। साथ ही डाक द्वारा मुझे औपचारिक पत्र भेज दिए गए।

और यह मेरे काम की शुरूआत थी और अब मेरा अमिताभ बच्चन के साथ सचमुच परिचय हो गया था। कुछ दिन उनकी माता की मृत्यु हो गई। मैंने उन्हे शोक-पत्र और एक कविता लिखकर भेजी। तब से मेरे पास उनका निजि ईमेल पता भी है।

अब असली काम शुरू करने का समय आ गया था। पहले पहले यह का आसान लगता था पर धीरे धीरे मुश्किलें बढ़ती गईं। तमाम शब्दकोषों के बावजूद मुझे शब्दों के अभिप्राय समझ में नहीं आते थे, क्योंकि लेखक उन्हें बिल्कुल अलग सन्दर्भ में उपयोग करते थे। पहले शब्दों को समझने के लिए रोमन लिपि में बदलना, फिर उनके उत्तर ढूंढना, फिर उनका अनुवाद करना, फिर अनुवाद को ठीक तरह से कविता की तरह लिखना, वे 135 छन्द अब मुझे पहाड़ की तरह लगने लगे। अगर मैं कोई समस्या ईमेल द्वारा अपने परिचितों को भी लिखती, तो भी उत्तर आने में कई दिन लग जाते। मेरा धैर्य टूटने लगा। मैं सोचने लगी कि आखिर इतनी मेहनत का फायदा क्या है? क्या मैं यह सब किसी के कहने पर कर रही हूं? नहीं। पर जब भी मैं यह काम छोड़ने लगती, फिर से कुछ हो जाता और मैं पुन काम में लग जाती।

फिर आईआईटी खड़गपुर के शासवत दूर्वर नामक एक कैमिकल इंजनियरिंग के छात्र से मेरा परिचय हुआ। वह भी आर्ट वांटेड पर सक्रिय था। उसे इस पुस्तक का ज्ञान भी था और रुचि भी। एक बार वह कुछ समय की ट्रेंनिंग के लिए जर्मनी आया। हमने मिलकर इस पुस्तक पर बहुत काम किया। पुस्तक में जीवन के बारे में लिखी बातें मेरे अपने ख्यालों से बहुत मिलती जुलती थीं। आखिर वह समय आया जब अनुवाद पूरा हो गया। पर क्या यह अनुवाद कविता के हिसाब से बिल्कुल ठीक था? क्या पता। खुश्किस्मती से एक परिचित द्वारा एक जर्मन विश्वविद्यालय में कार्यरत 'वी श्रीनिवासन' नामक एक भारतीय भाषा-विज्ञानी के बारे में पता चला। उसने बहुत सी गल्तियों को ठीक किया और कई नए उपयुक्त शब्द बताए। इसी बीच कभी कभी अमिताभ बच्चन को ईमेल द्वारा अपने काम के बारे में बताती थी। उनके उत्तर संक्षेप में होते थे पर आते ज़रूर थे। मैंने उनको बताया कि मैं कोई अच्छा प्रकाशक ढूंढ रही हूं। मैंने उनसे पुस्तक की भूमिका लिखने का आग्रह किया। पहले पहल उन्होंने मना किया पर बाद में मान गए। इसी बीच जर्मनी के द्रौपदी प्रकाशन ने मेरी कृति को प्रकाशित का फैसला कर लिया। इस तरह मेरा भारत के साथ नाता जुड़ा।

साभार: 
क्लाउडिया ह्युफ़्नर // http://www.claudia-huefner.de/
बसेरा // http://basera.de ,  जर्मनी की एकमात्र हिन्दी पत्रिका 
http://rajneesh-mangla.de