Monday, January 23, 2006

मेरे द्स्तावेजो की दुनियाँ

रसो से बन्द पडे
मेरे दस्तवेजो की दुनिया
बड़ी ही दिलकश है
एक उम्र का अनुभव है
इनमे...

एक अर्थहीन पीडा
यहाँ,
पन्नोँ मे साँस लेती है...
कितनी ही स्मृतियो के
बीज बोये हैं मैने
इंनके आंगन मे....

अनुभवओ की मिठास है यहाँ
और....
जीवन की दहकती हुई
ख़ुशियो और गमो के
कितने कशीदे गढे हैं इनमे...

मेरी अपनी जमीन है यहाँ
एक भाषा...
जहाँ..
प्रेम, स्वप्न और प्रार्थना का जिद्दीपन है
जो अभी अभी इतिहास हुआ लगता है....

कितनी ही उदास शामे
गुजारी है मैने
उन खामोश टिमटिमाते हुए
सितारो के साथ....

मेरी वेदना के सघन वन मे
कितनी पक्त्तियाँ हैं,
जो सपाट सी हैं
पर नजर नही आती....

दुनिया को बदल डालने की
धारदार अभिव्यक्ती भी है
और...
कितने ही चेहरो की
शराफत मे छिपी हुई
कुटिलता के बयान भी....

मेरी अंतह्करण की हूक से
निकले हुए वह तेज़ाबी शब्द
जिनमे...
चीख, करुणा, बेबसी
और...
चेतना के विराट सौन्दर्य से
दूर ले जाता अन्धकार है...

किंतने ही पन्ने हैं यहाँ...
जो खामोश रखकर भी
खामोश नही हैं...

हाँ,
व्यथा है...
मेरे इन दस्तावेजॉ मे
एक अ-नायक की..
जिसे...
अपने ही घर की तलाश है....

4 comments:

संगीता मनराल said...

Great Vij Ji,

Common but Unusual Poetry...
Wishes..

Keep it up!

Udan Tashtari said...

एक उम्र का अनुभव है
इनमे...

कितने सटीक शब्दों मे सभी की बात कह डाली, विजेन्द्र जी. बहुत सुंदर...शुभकामनाओं सहित

समीर लाल

Pratik Pandey said...

विजेन्द्र जी, हिन्दी ब्लॉग मण्डल में आपका हार्दिक स्वागत है। आशा है कि आपकी क़लम ऐसे ही अनवरत चलती रहेगी और काव्य-धारा नि:सृत होती रहेगी।

Barthwal said...

वाह विज़ जी सही कहा आपने पुराने दस्तावेज़ो मे ना जाने क्या क्या समय की बेडियो मे बांध रखा है.. मन बडा उतावला होता है शुभकामनाये

http://merachintan.blogspot.com/