Monday, May 21, 2007

भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी-अशोक चक्रधर

जी दिल बल्लियों उछला और गमले के गुलाब की तरह खिला जब पाकिस्तान से मुशायरों की श्रृंखला में शिरकत करने का दावतनामा मिला। पाकिस्तान जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हवाई जहाज़ डबल-डैकर था। में था ऊपर की मंज़िल पर। मेरे एक ओर पद्मश्री बेकल उत्साही और दूसरी ओर शायर दीक्षित दनकौरी बैठे थे। नीचे की मंज़िल पर बाकी भारतीय शायर-हज़रात थे। दोपहर ढाई बजे उड़ना था लेकिन साढ़े तीन से पहले नहीं हिला।

हिलने से पहले हुई बिस्मिल्लाह। कुरान की आयत पढ़ी गई। मैंने भरपूर दुनिया घूमी पर हवाई जहाज़ में प्रार्थना होते हुए पहली बार सुनी। बेकल साहब ने बताया—‘ये सफ़र की दुआ है। इसमें कहा जा रहा है कि हम तेरे हवाले हैं, तू सबसे बड़ा है। तू हमारे गुनाहों को माफ करते हुए इस सफ़र को हमारे लिए आसान कर दे’।

तभी एक मधुर आवाज़ गूंजी— ‘सलाम वालेक़ुम ख़वातीनो हज़रात। इस परवाज़ पर हम ख़ुशामदीद कहते हैं। हमारी रवानगी में जो ताकीर हुई उसके लिए हम माज़रतख़्वाह हैं। ये ताकीर ऑपरेशनल वजूहात की बिना पर हुई। हम इंशाअल्लाह एक घंटा चालीस मिनट में कराची पहुंचेंगे। हमें उम्मीद है कि आपका सफ़र ख़ुशगवार ग़ुज़रेगा। ताकीर के लिए हम फिर से माज़रतख़्वाह हैं’।
बेकल जी के बिना बताए मैं समझ गया कि ताकीर माने देरी और माज़रतख़्वाही का मतलब है माफ़ी मांगना। मैं ऐन उस दिन जा रहा था जिस दिन अभि और ऐश एक होने वाले थे। मैं उनके जीवन के सफ़र की दुआएं करने लगा। शादी में जो ताकीर हुई उसके लिए माज़रतख़्वाही कौन करे। कुंडली में बैठे मंगल को माज़रतख़्वाही करनी चाहिए। जिसने अभिषेक के अब्बा को मन्दिरों में नंगे पाँव दौड़ा दिया।
जब हवाई जहाज़ कराची के हवाई-अड्डे पर उतरा तो बताया गया कि बैरूनी दर्जा हरारत बत्तीस डिग्री है और ताकीर के लिए हम माज़रत चाहते हैं। ‘दर्जा हरारत’ ज़ाहिर है तापमान के लिए कहा गया जिसे बत्तीस बताया गया। अंदरूनी ‘अंदर का’ होता है, बैरूनी ‘बाहर का’ होगा। हम प्राय: कहते है कि आज बदन में हरारत है, पर ये कभी नहीं सोचा कि हरारत का मतलब तापमान है। शब्दों के प्रयोग से हम उनके अर्थ बिना बताए सीख पाते हैं। बैरूनी, ताकीर, माज़रत और हरारत, इन चार शब्दों में जो शब्द दस दिन तक सर्वाधिक सुना वह था— ‘माज़रत’।

हवाई अड्डे पर जो लोग लेने आए वे असंख्य कारणों से माज़रतख़्वाह थे। जिस बस में बैठे, उसका ड्राइवर माज़रतख़्वाह था कि जब तक सब नहीं बैठ जाएंगे वह ए.सी. नहीं चलाएगा। शायर आठ, चाहने वाले साठ। चढ़ने ही न दें बस में। हमें पहचानने वाले भी वहां मिल गए। जिन्होंने टीवी पर ‘वाह-वाह’ देखा होगा। कोई ऑटोग्राफ के चक्कर में, कोई फोटोग्राफ के चक्कर में। मैंने उनसे माज़रत चाहते हुए बस में सीट पर कब्ज़ा किया। ए.सी. बैठा तो ए.सी. चला।

माज़रत शब्द अगर बहुत पहले आ गया होता तो महाभारत नहीं होती। क्षमा ही तो नहीं सीखी लोगों ने। कौरव-पाण्डव एक-दूसरे को क्षमा कर देते तो सुईं की नोक के बराबर भी लड़ाई नहीं होती। वेदव्यास ने वनपर्व में लिखा है-- ‘क्षमा धर्मा: क्षमा यज्ञ क्षमा वेदा क्षमा श्रुतम्’, क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है तथा क्षमा शास्त्र है। पर किसने जाना और किसने माना। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान भी कश्मीर के बारे में महाभारत पर आमादा रहते हैं। अरे! माज़रत पर आमादा रहो, महाभारत में क्या रखा है रे भइया।

पाकिस्तान के हर मुशायरे में हम यही मुहब्बत का पैगाम देते रहे। मैं ठहरा वहां के मुशायरों में जाने वाला पहला हिन्दी कवि। हिन्दी कविता का अलग शिल्प, अलग विधान, अलग तरीका। उन्हें तो आदत थी दो-दो पंक्तियों के शेर सुनने की, अपनी कविता होती थी कथात्मक और लंबी। वहां के श्रोताओं के लिए नया तजुर्बा। पहले मुशायरे के बाद वहां के अदब-नवाज़ आयोजक जनाब अफ़ज़ाल सिद्दिक़ी ने कहा— ‘अशोक साहब, पता ही नहीं चलता कि कब तक आपकी गुफ्तगू चलती है और कहां आपकी शायरी शुरू हो जाती है। पर सामईन (श्रोताओं) ने पसन्द किया आपको। कुछ तो बेहूदे हर जगह होते हैं, उन्हें ग़ज़ल के अलावा कुछ समझ नहीं आता’। मैंने कहा- ‘चलिए कोशिश करूंगा। ग़ज़ल का शायर तो मैं नहीं हूं पर यदा-कदा कह लेता हूं’।

मुशायरे में लोग उछल-उछल कर दाद देते थे। अगर उत्साह में आकर श्रोता ताली बजा बैठें तो निज़ामत करने वाला यानी संचालक टोक देता था— ‘मैं बड़ी माज़रत के साथ आपसे ग़ुज़ारिश करना चाहता हूं कि तालियां बजाना अदब-नवाज़ी के एकदम ख़िलाफ है। मेहरबानी करके तालियां न बजाइए, दाद दीजिए, वाह-वाह कीजिए’।

मैं हैरान! अरे अपने यहां तो कविगण तालियों की भीख मांगते हैं। तालियों के लिए कटोरा-सा लेकर खड़े हो जाते हैं। कोई माज़रत-फाज़रत नहीं करते हैं। धड़ल्ले से बेशर्म होकर कहते हैं कि तालियां बजाइए। न बजाओ तो श्राप देने लगते हैं-- तालियां नहीं बजाईं तो आपको देश-द्रोही माना जाएगा, तालियां नहीं बजाईं तो आप अगले जन्म में घर-घर जाकर तालियां बजाएंगे, तालियां बजाइए मेरे बाल-बच्चे आपको दुआ देंगे। मैं अपने गीत की यही लाइन तब तक दोहराता रहूंगा या रहूंगी जब तक आप मिलकर तालियां नहीं बजाएंगे। ऐसी ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं कि क्या कहिए! और वहां अदब-नवाज़ सामईन माज़रतख़्वाह हैं।

अफ़ज़ाल साहब की नसीहत पर मैंने अपनी दरिन्दा-परिन्दा वाली ग़ज़ल सुनाई। मौक़े की नज़ाकत देखते हुए उसका एक शेर बदल भी दिया—

‘भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी,
ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’।

इस पर तालियां न रुकीं और संचालक महोदय भी न रोक पाए। तालियां इतनी पुर-बुलंद, इतनी सामूहिक और इतनी स्वत:स्फूर्त थीं कि अदब-नवाज़ी की रवायात ध्वस्त हो गईं। मैंने कोई शायरी नहीं की थी, बल्कि एक ऐसी इच्छा को अभिव्यक्ति दी थी जो पाकिस्तान की जनता शिद्दत के साथ महसूस कर रही थी। ‘ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’, ये बात मनमोहन सिंह और मुशर्रफ नहीं कह सकते और न सुन सकते। लेकिन एक शायर कह सकता है, एक कवि कह सकता है। उसके लिए धरती पर खीचीं गई सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं। वह तो दिलों के बीच की सीमाओं और दीवारों को तोड़ डालता है। धरती पर भौगोलिक सीमाएं भले ही बनाए रखो पर दिलों में खिंची सारी सीमा-रेखाओं को मिटा दो।

दस दिन खूब अच्छे बीते। सुबह कहीं इस्तकबालिया, दिन में कहीं लंच, शाम को कहीं चाय, रात में कहीं शानदार डिनर और उसके बाद मुशायरा, जिसमें पचास और सत्तर के बीच में शायर हज़रात। संचालक को हर बार दोहराना पड़े– ‘मैं माज़रत के साथ कहता हूं कि इख़्तेसारी से काम ले’। इख़्तेसारी बोले तो संक्षेप में बोलें। एक जगह तो ऐलान कर दिया गया कि अपने पसंदीदा पाँच शेर सुनाएं सिर्फ़। फ़ज़र की अज़ान से पहले मुशायरा ख़त्म करना है। मैंने तो एक जगह कह भी दिया—

एक शायर के लिए भारी है,
इख़्तेसारी तो एक आरी है।
यहां आ के मुझे महसूस हुआ
कम सुनाने में समझदारी है।

बैरूनी, ताकीर, माज़रत, हरारत, इख़्तेसारी जैसे शब्दों के साथ पाकिस्तानियों की मुहब्बतें लेकर लौटे। मुम्बई के हवाई अड्डे पर वही उद्घोषणाएं— ‘इंशाअल्लाह, हम मुम्बई पहुंच गए हैं। बैरूनी दर्जा हरारत चौंतीस डिग्री है’। और चूंकि कोई ताकीर नहीं हुई थी सो माज़रत भी नहीं की गई। मैं सोच रहा था कि अगर कोई भी आसानी से माज़रत कर ले तो बैरूनी तो क्या, अन्दरूनी तापमान ठीक हो जाता है। घर आए तो अमित जी के यहां से आई अभि-ऐश की शादी की मिठाई खाई। पड़ोस में बांटी, जिनको नहीं मिल पाई उनसे माज़रत कर ली।

द्वारा: डॉ. अशोक चक्रधर की कलम से...
http://www.chakradhar.com/

10 comments:

योगेश समदर्शी said...

बहुत खूब आलेख पढ कर मन मुग्ध हो गया

.... ए.सी. बैठा तो ए.सी. चला।
वाह भई वाह्
क्या खूब कहा है गुरूजी
.....माज़रत शब्द अगर बहुत पहले आ गया होता तो महाभारत नहीं होती।
....अरे! माज़रत पर आमादा रहो, महाभारत में क्या रखा है रे भइया।
कवि के ह्र्दय को उकेर दिया
.....उसके लिए धरती पर खीचीं गई सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं। वह तो दिलों के बीच की सीमाओं और दीवारों को तोड़ डालता है।
और अंत मे तो कमाल ही कर दिया.
....मैं सोच रहा था कि अगर कोई भी आसानी से माज़रत कर ले तो बैरूनी तो क्या, अन्दरूनी तापमान ठीक हो जाता है।
ब्लोग पढने का बहुत लाभ मिल रहा है अशोक जी, नई तकनीक ने साहित्य का बडा हित किया है. एक बार फिर बधाई.

परमजीत सिहँ बाली said...

दिलो को जोड़्ने वाली ये लाईनें हमारे दिल को भी छूँ गई-

भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी,
ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’।

अभय तिवारी said...

आनन्द आया पढ़कर.. तालियां भी बजाई साहब..आप्को सुनाई नहीं दी.. माज़रतख्वाह हूँ..

Unknown said...

बहुत खूब !!

Unknown said...

बहुत खूब !!

सुनीता शानू said...

वाह विजेन्द्र जी आपने हमारे पसन्दीदा कवि अनाड़ी जी की पाकिस्तान यात्रा का अच्छा लेख पढ़वाया है...बहुत अच्छा लगा...हाँ ये सच है एक कवि ही बिना डरे हर बात कह सकता है..क्यूँकि एक कलाकार का हथीयार उसकी कलम ही होती है। जैसे कि...
‘भुला दे अब तो भुला दे कि भूल किसकी थी,
ये पाक मेरा है, हिन्दोस्तान तेरा है’।
बहुत अच्छा लगा।
बधाई।
सुनीता चोटिया(शानू)

Raag said...

चक्रधर जी भी ब्लॉग तक पहुँच गए, मज़ा आ गया सच में।

अभिनव said...

चक्रधर की यह सुंदर रचना हम तक पहुँचाने के लिए अनेक धन्यवाद।

Anonymous said...

दोस्तो,
लेख अच्छा लगा है तो और भी भेजता रहूंगा.. ना पसन्द आये तो माज़रतख्वाही पहले से ही कर लेता हूँ.

लवस्कार,
-अशोक चक्रधर

Anonymous said...
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